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________________ १९६ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास नमस्कार करते रहते हैं। यही उनका विनयवाद है । प्रस्तुत अध्ययन में केवल इन चार मतों अर्थात् वादों का ही उल्लेख है। स्थानांग सूत्र में अक्रियावादियों के आठ प्रकार बताए गये हैं : एकवादी, अनेकवादी, मितवादी, निर्मितवादी, सुखवादी, समुच्छेदवादी, नियतवादी तथा परलोकाभाववादी ।' समवायांग में सूत्रकृतांग का परिचय देते हुए क्रियावादी आदि मतों के ३६३ भेदों का केवल एक संख्या के रूप में निर्देश कर दिया गया है। ये भेद कौन से हैं, इसके विषय में वहाँ कुछ नहीं कहा है । सूत्रकृतांग को नियुक्ति में क्रियावादी के १८०, अक्रियावादी के ८४, अज्ञानवादी के ६७ और विनयवादी के ३२-इस प्रकार कुल ३६३ भेदों की संख्या बताई गई है। ये भेद फिस प्रकार हुए है एवं उनके नाम क्या हैं, इसके विषय में नियुक्तिकार ने कोई प्रकाश नहीं डाला है । चूर्णिकार एवं वृत्तिकार ने इन भेदों की नामपूर्वक गणना की है। प्रस्तुत अध्ययन के प्रारंभ में क्रियावाद आदि से सम्बन्धित चार वादियों का नामोल्लेख है । यहाँ पर बताया गया है कि समवसरण चार ही हैं, अधिक नहीं। द्वितीय गाथा में अज्ञानवाद का निरसन है । सत्रकार कहते हैं कि अज्ञानवादी वैसे तो कुशल हैं किन्तु धर्मोपाय के लिए अकुशल हैं। उनमें विचार करने की प्रवृत्ति का अभाव है। अज्ञानवाद क्या है अर्थात् अज्ञानवादियों की मान्यता का स्वरूप क्या है, इसका स्पष्ट एवं पूर्ण निरूपण न तो सूत्रकार ने किया है, न किसी टीकाकार ने । जैसे सूत्रकार ने निरसन को प्रधानता दी है वैसे ही टीकाकारों ने भी वह शैली अपनाई है। परिणामतः बौद्धों तक को अज्ञानवादियों की कोटि में गिना जाने लगा। तीसरी गाथा में विनयवादियों का निरसन है। चौथी गापा का पूर्वार्ध विनयवाद से सम्बन्धित है एवं उत्तरार्ध अक्रियावाद विषयक है । पांचवीं गाथा में अक्रियावादियों पर आक्षेप किया गया है कि ये लोग हमारे द्वारा प्रस्तुत तर्क का कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दे सकते, मिश्रभाषा द्वारा छुटकारा पाने की कोशिश करते हैं, उन्मत्त की भांति बोलते हैं अथवा गूंगे की तरह साफ जवाब नहीं दे सकते । छठी गाथा में इस प्रकार के अक्रियावादियों को संसार में भ्रमण करने वाला बताया गया है। सातवी गाथा में अक्रियावाद की मान्यता इस प्रकार बताई है : सूर्य उदित नहीं होता, सूर्य अस्त भी नहीं होता; चन्द्रमा बढ़ता नहीं, चन्द्रमा कम भी नहीं होता; नदियाँ पर्वतों से निकलती नहीं; वायु बहता नहीं । इस तरह यह सम्पूर्ण लोक नियत है वंध्य है, निष्क्रिय है। ग्यारहवीं गाथा में कहा गया है कि यहाँ जो चार समवसरण अर्थात् वाद बताये गये हैं उनका तथागत १ विशेप परिचय के लिए देखिये-स्थानांग-समवायांग (पं० दलसुख मालवणिया कृत गुजराती रूपान्तर); पृ. ४४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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