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________________ १८२ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास जन करते हैं और उसके द्वारा आरोप्प ( आरोप्य ) नामक देवयोनि में जन्म लेते हैं । बौद्धवादियों की इस मान्यता का प्रतीकार करते हुए आर्द्रकुमार कहते हैं कि खली को पुरुष समझना अथवा अलाबु को कुमार समझना या पुरुष को खली समझना अथवा कुमार को अलाबु समझना कैसे संभव है ? जो ऐसा कहते हैं और उस कथन को स्वीकार करते हैं वे अज्ञानी हैं। जो ऐसा समझ कर भिक्षु ओं को भोजन करवाते हैं वे असंयत हैं, अनार्य हैं, रक्तपाणि हैं। वे औद्देशिक मांस का भक्षण करने वाले हैं, जिह्वा के स्वाद में आसक्त हैं। समस्त प्राणियों की रक्षा के लिए ज्ञातपुत्र महावीर तथा उनके अनुयायी भिक्षु औद्देशिक भोजन का सर्वथा त्याग करते हैं । यह निम्रन्थधर्म है । प्रथम अध्ययन के तृतीय उद्देशक की पहली ही गाथा में औदेशिक भोजन का निषेध किया गया है। किसी भिक्षुविशेष अथवा भिक्षुसमूह के लिए बनाया जाने वाला भोजन, वस्त्र, पात्र, स्थान आदि आर्हत मुनि के लिए अग्राह्य है । बौद्ध भिक्ष ओं के विषय में ऐसा नहीं है । स्वयं भगवान् बुद्ध निमन्त्रण स्वीकार करते थे। वे एवं भिक्षुसंघ उन्हीं के लिए तैयार किया गया निरामिष अथवा सामिष आहार ग्रहण करते थे तथा विहारों व उद्यानों का दान भी स्वीकार करते थे। जगत्-कर्तृत्व : प्रस्तुत उद्देशक की पांचवीं गाथा से जगत्-कर्तृत्व की चर्चा शुरू होती है । इससे जगत् को देवउत्त (देवउप्त) अर्थात् देव का बोया हुआ, बंभउत्त (ब्रह्मउप्त) अर्थात् ब्रह्म का बोया हुआ, इस्सरेण कत ( ईश्वरेण कृत ) अर्थात् ईश्वर का बनाया हुआ, संभुणा कत (स्वयंभुना कृत) अर्थात् स्वयंभू का बनाया हुआ कहा गया है। साथ ही यह भी बताया गया है कि यह कथन महर्षियों का है : इति वृत्तं महेसिणा । चर्णिकार 'महर्षि' का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहते हैं : 'महऋषी नाम स एवब्रह्मा अथवा व्यासादयो महर्षयः' अर्थात् महर्षि का अर्थ है ब्रह्मा अथवा व्यास आदि ऋषि । यहां छठी गाथा में जगत् को प्रधानकारणिक भी बताया गया है। प्रधान का अर्थ है सांख्यसम्मत प्रकृति । सातवीं गाथा में बताया गया है कि मार रचित माया के कारण यह जगत् अशाश्वत है अर्थात् संसार का प्रलयकर्ता मार है । चूर्णिकार ने 'मार' का अर्थ 'विष्णु' बताया है जबकि वृत्तिकार ने 'मार' शब्द का 'यम' अर्थ किया है। आठवीं गाथा में जगत् को अंडकृत अर्थात् अंडे में से पैदा होने वाला बताया गया है-अंडकडे जगे । इन सब वादों का खण्डन करने के लिए सूत्रकार ने कोई विशेष तर्क प्रस्तुत न करते हुए केवल इतना ही कहा है कि ऐसा मानने वाले अज्ञानी हैं, असत्यभाषी हैं, तत्त्व से अन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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