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________________ सूत्रकृतांग बुद्ध का शूकर-मांसभक्षण : ____ बौद्ध परम्परा में एक कथा ऐसी प्रचलित है कि खुद बुद्ध ने शूकरमद्दव अर्थात् सूअर का मांस खाया था।' सुअर का मांस खाते हुए भी बुद्ध पापकर्म से लिप्त नहीं हुए। ऐसा मालूम होता है कि उपयुक्त गाथा में सूत्रकार ने बौद्ध सम्मत कर्मचय का स्वरूप समझाते हुए इसी घटना का निर्देश किया है। यह कैसे ? गाथा के प्रारम्भ में जो ‘पुत्तं' पाठ है वह किसी कारण से विकृत हुआ मालूम पड़ता है। मेरी दृष्टि से यहाँ “पोत्ति" पाठ होना चाहिए । अमरकोश तथा अभिधानचिन्तामणि में पोत्री ( प्राकृत पोत्ति ) शब्द शूकर के पर्याय के रूप में सुप्रसिद्ध है । अथवा संस्कृत पोत्र ( प्राकृत पुत्त ) शब्द शूकर के मुख का सूचक माना गया है। यदि ऐसा समझा जाय कि इसी अर्थ वाला पुत्त शब्द इस गाथा में प्रयुक्त हुआ है तो शूकर का अर्थ भी संगत हो जाता है। अतः इस "पुत्तं" पाठ को विकृत करने की जरूरत नहीं रहती। संशोधक महानुभाव इस विषय में जरूर विचार करें। इसी प्रकार उक्त गाथा में प्रयुक्त 'मेहावी" शब्द भगवान् बुद्ध का सूचक है। इस दृष्टि से यह मानना उपयुक्त प्रतीत होता है कि उक्त गाथा में कर्मबन्ध की चर्चा करते हुए बुद्ध के शूकर-मांसभक्षण का उल्लेख किया गया है। मेरी यह प्ररूपणा कहाँ तक सत्य है, इसका निर्णय गवेषणाशील विद्वज्जन ही करेंगे। उपर्युक्त गाथा के पहले की तीन गाथाओं में भी बौद्ध संमत कर्मबन्धन का ही स्वरूप बताया गया है। हिंसा का हेतु : सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में आने वाले आर्द्रकीय नामक छठे अध्ययन में आर्द्रकुमार नामक प्रत्येकबुद्ध के साथ होने वाले बौद्ध सम्प्रदाय के वादियों के वाद-विवाद का उल्लेख है। उसमें भी कर्मबन्धन के स्वरूप की ही चर्चा है। बौद्धमत के समर्थक कहते हैं कि मानसिक संकल्प ही हिंसा का कारण है । तिल अथवा सरसों की खली का एक पिण्ड पड़ा हो और कोई उसे पुरुष समझ कर उसका नाश करे तो हमारे मत में वह हिंसा के दोष से लिप्त होता है। इसी प्रकार अलाबु को कुमार समझ कर उसका नाश करने वाला भी हिंसा का भागी होता है। इससे विपरीत पुरुष को खली समझ कर एवं कुमार को अलाबु समझ कर उसका नाश करने वाला, प्राणिवध का भागी नहीं होता। इतना ही नहीं, इस प्रकार की बुद्धि से पकाया हुआ पुरुष का अथवा कुमार का मांस बुद्धों के भोजन के लिए विहित है। इस प्रकार पकाये हुए मांस द्वारा जो उपासक अपने सम्प्रदाय के दो हजार भिक्षुओं को भोजन कराते हैं वे महान् पुण्यस्कन्ध का उपा १. देखिये-बुद्ध चर्या, पृ. ५३५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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