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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास तब तथागत ने कहा-हे भिक्षुओं ! तुमने घरबार छोड़ा है और संसाररूपी अटवी को पार करने के हेतु से ही भिक्षु-व्रत लिया है, तुम्हें संसाररूप भीषण जंगल पार कर निर्वाण लाभ करना है तो इसी एक निमित्त को लक्ष्य में रखकर भोजन-पान लेते रहो वह भी परिमित और धर्मप्राप्त तथा कालप्राप्त । मिले तो ठीक है, न मिले तो भी ठीक समझो। स्वाद के लालच से, शरीर में बल बढ़े, शक्ति का संचय हो तथा अपना रूप, लावण्य तथा सौंदर्य बढ़ता रहे इस दृष्टि से खान-पान लोगे तो तुम भिक्षुक धर्म से च्युत हो जाओगे और मोघभिक्षु-पिंडोलक भिक्ष हो जाओगे।
तथागत बुद्ध ने इस रूपक कथा द्वारा भिक्षुओं को यह समझाया है कि भिक्षुगण किस उद्देश्य से खान-पान लेवें । मालूम होता है कि समय बीतने पर इस कथा का आशय विस्मत हो गया-स्मृति से बाहर चला गया और केवल शब्द का अर्थ ही ध्यान में रहा और इस अर्थ का ही मांसभोजन के समर्थन में लोग क्या भिक्षुगण भी उपयोग करने लग गए हों । इसी परिस्थिति को देख कर चणिकार ने अपने तरीके से और वृत्तिकार ने अपने तरीके से इस गाथा का विवरण किया है ऐसा मालम पड़ता है। विसुद्धिमग्ग और महायान के शिक्षासमुच्चय में भी इसी बात का प्ररूपण किया गया है।
सूत्रकृत की उक्त गाथा की व्याख्या में चूर्णिकार व वृत्तिकार में मतभेद है । चूर्णिकार के अनुसार किसी उपासक अथवा अन्य व्यक्ति द्वारा अपने पुत्र को मारकर उसके मांस द्वारा तैयार किया गया भोजन भी यदि कोई मेधावी भिक्षु खाने के काम में ले तो वह कर्मलिप्त नहीं होता । हाँ, मारने वाला अवश्य पाप का भागी होता है । वृत्तिकार के अनुसार आपत्तिकाल में निरुपाय हो अनासक्त भाव से अपने पुत्र को मारकर उसका भोजन करने वाला गृहस्थ एवं ऐसा भोजन करने वाला भिक्षु इन दोनों में से कोई भी पापकर्म से लिप्त नहीं होता । तात्पर्य यह कि कर्मबन्ध का कारण ममत्वभाव-आसक्ति-रागद्वेष-कषाय है, न कि कोई क्रियाविशेष ।
ज्ञाताधर्मकथा नामक छठे अंगसूत्र में सुंसुमा नामक एक अध्ययन है जिसमें पूर्वोक्त संयुत्तनिकायादि प्रतिपादित रूपक के अनुसार यह प्रतिपादित किया गया है कि आपत्तिकाल में आपवादिक रूप से मनुष्य अपनी खुद की सन्तान का भी मांस भक्षण कर सकता है। यहाँ मृत संतान के मांसभक्षण का उल्लेख है न कि मारकर उसका मांस खाने का। इस चर्चा का सार केवल यही है कि अनासक्त होकर भोजन करने वाला अथवा अन्य प्रकार की क्रिया में प्रवृत्त होने वाला कर्मलिप्त नहीं होता।
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