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सूत्रकृतांग
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भिज्ञ हैं । इन गाथाओं का विवेचन करते हुए चूर्णिकार ने सातवीं गाथा के बाद नागार्जुनीय पाठान्तर के रूप में एक नई गाथा का उल्लेख किया है जो इस प्रकार है :
अतिवड्ढीयजीवा णं मही विण्णवते प ।
ततो से मायासंजुत्ते करे लोगस्सऽमिद्दवा ।। __ अर्थात् पृथ्वो अपने ऊपर जीवों का भार अत्यधिक बढ़ जाने के कारण प्रभु से विनती करती है। इससे प्रभु ने माया की रचना की और उसके द्वारा लोक का विनाश किया।
__ यह मान्यता वैदिक परम्परा में अति प्राचीन काल से प्रचलित है। पुराणों में तो इसका सुन्दर आलंकारिक वर्णन भो मिलता है। ग्यारहवीं व बारहवीं गाथा में गीता के अवतारवाद का निर्देश है । इन गाथाओं का आशय यह है कि आत्मा शुद्ध है फिर भी क्रोडा एवं द्वेष के कारण पुनः अपराधी अर्थात् रजोगुणयुक्त बनती है एवं शरीर धारण करती है । ईश्वर अपने धर्म की प्रतिष्ठा एवं दूसरे के धर्म की अप्रतिष्ठा देख कर लीला करता है । अपने धर्म को अप्रतिष्ठा एवं दूसरे के धर्म की प्रतिष्ठा देखकर उसके मन में द्वेष उत्पन्न होता है और वह अपने धर्म की पुनः प्रतिष्ठा करने के लिए रजोगुणयुक्त होकर अवतार धारण करता है । अपना कार्य पूरा करने के बाद पुनः शुद्ध एवं निष्पाप होकर अपने वास्तविक रूप में अवस्थित होता है । धर्म का विनाश एवं अधर्म की प्रतिष्ठा देख कर ईश्वर के अवतार लेने की यह मान्यता ब्राह्मणपरम्परा में मान्य है । संयमधर्म : __प्रथम अध्ययन के अन्तिम उद्देशक में निर्ग्रन्थ को संयम धर्म के आचरण का उपदेश दिया गया है और विभिन्न वादों में न फंसने को कहा गया है। तीसरी गाथा में यह बताया गया है कि कुछ लोगों की मान्यता के अनुसार परिग्रह एवं आरंभ-आलंभन-हिंसा आत्मशुद्धि व निर्वाण के लिए हैं। निर्ग्रन्थों को यह मत स्वीकार नहीं करना चाहिए। उन्हें समझना चाहिए कि अपरिग्रह तथा अपरिग्रही एवं अनारंभ तथा अनारंभी ही शरणरूप है ।
पांचवी गाथा से लोकवाद की चर्चा प्रारंभ होती है। इसमें लोकविषयक नित्यता व अनित्यता, सान्तता व अनन्तता, परिमितता व अपरिमितता आदि का विचार है । वृत्तिकार ने पौराणिकवाद को लोकवाद कहा है और बताया है कि ब्रह्मा अमुक समय तक सोता है व कुछ देखता नहीं, अमुक समय तक जागता है व देखता है-यह सब लोकवाद है।
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