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________________ सूत्रकृतांग १७७ समय में अथवा सूत्रयोजक के युग में सांख्यमतानुयायी अहिंसाप्रधान अथवा अपरिग्रहप्रधान नहीं दिखाई देते थे। अज्ञानवाद: प्रस्तुत सूत्र के प्रथम अध्ययन के द्वितीय उद्देशक की छठी गाथा से जिस वाद की चर्चा प्रारम्भ होती है व चौदहवीं गाथा से जिसका खण्डन शुरू होता है उसे चूर्णिकार तथा वृत्तिकार ने “अज्ञानवाद" नाम दिया है । नियुक्तिकार ने कहा है कि नियतिवाद के बाद क्रमशः अज्ञानवाद, ज्ञानवाद एवं बुद्ध के कर्मचय की चर्चा आती है। नियुक्तिकारनिर्दिष्ट अज्ञानवाद की चर्चा चूणि अथवा वृत्ति में कहीं भी दिखाई नहीं देती। समवसरण नामक बारहवें अध्ययन में जिन मुख्य चार वादों का उल्लेख है उनमें अज्ञानवाद का भी समावेश है । इस वाद का स्वरूप वृत्तिकार ने इस प्रकार बताया है कि 'अज्ञानमेव श्रेयः' अर्थात् अज्ञान ही कल्याणरूप है। अत: कुछ भी जानने की आवश्यकता नहीं है । ज्ञान प्राप्त करने से उलटी हानि होती है। ज्ञान न होने पर बहुत कम हानि होती है । उदाहरणार्थ जानकर अपराध किये जाने पर अधिक दण्ड मिलता है जबकि अज्ञानवश अपराध होने की स्थिति में दण्ड बहुत कम मिलता है अथवा बिलकुल नहीं मिलता । वृत्तिकार शीलांकाचार्यनिर्दिष्ट अज्ञानवाद का यह स्वरूप मूल गाथा में दृष्टिगोचर नहीं होता। यह गाथा इस प्रकार है : माहणा समणा एगे सव्वे नाणं सयं वए। सव्वलोगे वि जे पाणा न ते जाणंति किंचण || -अ. १, उ. २, गा. १४. अर्थात् कई एक ब्राह्मण कहते हैं कि वे स्वयं ज्ञान को प्रतिपादित करते हैं, उनके अतिरिक्त इस समस्त संसार में कोई कुछ भी नहीं जानता। ___ इस गाथा का तात्पर्य यह है कि कुछ ब्राह्मणों एवं श्रमणों की दृष्टि से उनके अतिरिक्त सारा जगत् अज्ञानी है। यही अज्ञानवाद की भूमिका है। इसमें से 'अज्ञानमेव श्रेयः' का सिद्धान्त वृत्तिकार ने कैसे निकाला ? भगवान महावीर के समकालीन छः तीर्थंकरों में से संजयबेलढिपुत्त नामक एक तीर्थकर अज्ञानवादी था। संभवतः उसी के मत को ध्यान में रखते हुए उक्त गाथा की रचना हुई हो । उसके मतानुसार तत्त्वविषयक अज्ञेयता अथवा अनिश्चयता ही अज्ञानवाद की आधारशिला है । यह मत पाश्चात्यदर्शन के अज्ञेयवाद अथवा संशयवाद से मिलताजुलता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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