SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७६ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास महावंश की टीका में यह बताया गया कि अशोक का पिता बिन्दुसार भी आजीविक सम्प्रदाय का आदर करता था। छठी शताब्दी में हुए वराहमिहिर के ग्रन्थ में भी आजीविक भिक्षुओं का उल्लेख है। बाद में इस सम्प्रदाय का धीरेधीरे ह्रास होता गया व अन्त में किसी अन्य भारतीय सम्प्रदाय में विलयन हो गया। फिर तो यहाँ तक हुआ कि आजीविक सम्प्रदाय, त्रैराशिकमत और दिगम्बर परम्परा-इन तीनों के बीच कोई भेद ही नहीं रहा।' शीलांकदेव व अभयदेव जैसे विद्वान् वृत्तिकार तक इनकी भिन्नता न बता सके । कोशकार हलायुध ( दसवीं शताब्दी) ने इन तीनों को पर्यायवाची माना है। दक्षिण के तेरहवीं शताब्दी के कुछ शिलालेखों में ये तीनों अभिन्न रूप से उल्लिखित हैं। सांख्यमत: प्रस्तुत सूत्र में अनेक मत-मतान्तरों की चर्चा आती है। इनके पुरस्कर्ताओं के विषय में नामपूर्वक कोई खास वर्णन मूल में उपलब्ध नहीं है। इन मतों में से बौद्धमत व नियतिवाद विशेष उल्लेखनीय है। इन दोनों के प्रवर्तक भगवान् महावीर के समकालीन थे। सांख्यसम्मत आत्मा के अकर्तृत्व का निरसन करते हुए सूत्रकार कहते हैं : जे ते उ वाइणो एवं लोगे तेसि कओ सिया ? तमाओ ते तमं जंति मंदा आरम्भनिस्सिआ॥ अर्थात इन वादियों के मतानुसार संसार की जो व्यवस्था प्रत्यक्ष दिखाई देती है उसकी संगति कैसे होगी? ये अंधकार से अंधकार में जाते हैं, मंद हैं, आरंभ-समारंभ में डूबे हुए हैं। उपयुक्त गाथा के शब्दों से ऐसा मालूम होता है कि भगवान् महावीर के १. 'स एवं गोशालकमतानुसारी त्रैराशिकः निराकृतः । पुनः अन्येन प्रकारेण आह'-सूत्रकृत० २, श्रुत० ६ आर्द्रकीय अध्ययन गाथा १४वीं का अव तरण-शीलाङ्कवृत्ति, पृ० ३९३. २. 'ते एव च आजीविका त्रैराशिका भणिताः'-समवायवृत्ति-अभयदेव, पृ० १३०. ३. 'रजोहरणधारी च श्वेतवासाः सिताम्बरः ॥३४४॥ नग्नाटो दिग्वासा क्षपणः श्रमणश्च जीवको जैनः । आजीबो मलधारी निर्ग्रन्थः कथ्यते सद्भिः ॥३४५॥ -हलायुधकोश, द्वितीयकांड. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy