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________________ १६८ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास के बालों का लोंच किया। इन्द्र ने भगवान् के पास घुटनों के बल बैठकर वनमय थाल में वे बाल ले लिये व भगवान् की अनुमति से उन्हें क्षीरसमुद्र में डाल दिये। बाद में भगवान् ने सिद्धों को नमस्कार कर 'सव्वं मे अकरणिज्जं पावकम्म' अर्थात् मेरे लिए सब प्रकार का पापकर्म अकरणीय है', इस प्रकार का सामायिकचारित्र स्वीकार किया। जिस समय भगवान् ने यह चारित्र स्वीकार किया उस समय देवपरिषद् एवं मनुष्यपरिषद् चित्रवत् स्थिर एवं शान्त हो गई। इन्द्र की आज्ञा से बजने वाले दिव्य बाजे शान्त हो गये । भगवान् द्वारा उच्चरित चारित्रग्रहण के शब्द सबने शान्त भाव से सुने । क्षायोपशमिक चारित्र स्वीकार करने वाले भगवान् को मनःपर्यायज्ञान उत्पन्न हुआ । इस ज्ञानद्वारा वे ढाई द्वीप में रहे हुए व्यक्त मनवाले समस्त पंचेन्द्रिय प्राणियों के मनोगत भावों को जानने लगे। बाद में दीक्षित हुए भगवान् को उनके मित्रजनों, ज्ञातिजनों स्वजनों एवं सम्बन्धोजनों ने विदाई दी। विदाई लेने के बाद भगवान् ने यह प्रतिज्ञा की कि आज से बारह वर्ष पर्यन्त शरीर की चिन्ता न करते हुए देव, मानव, पशु एवं पक्षीकृत समस्त उपसर्गों को समभावपूर्वक सहन करूँगा, क्षमापूर्वक सहन करूंगा। ऐसी प्रतिज्ञा कर वे मुहूर्त दिवस शेष रहने पर उत्तरक्षत्रियकुण्डपुर से रवाना होकर कम्मारग्राम पहुँचे। तत्पश्चात शरीर की किसी प्रकार की परवाह न करते हुए महावीर उत्तम संयम, तप, ब्रह्मचर्य, क्षमा, त्याग एवं सन्तोषपूर्वक पाँच समिति व तीन गुप्ति का पालन करते हुए, अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे एवं आने वाले उपसर्गों को शान्तिपूर्वक प्रसन्न चित्त से सहन करने लगे। इस प्रकार भगवान् ने बारह वर्ष व्यतीत किये। तेरहवां वर्ष लगने पर वैशाख शुक्ला दशमी के दिन छाया के पूर्व दिशा की ओर मुड़ने पर अर्थात् अपराह्न में जिस समय महावीर जंभियग्राम के बाहर उज्जुवालिया नामक नदी के उत्तरी किनारे पर श्यामाक नामक गृहपति के खेत में व्यावृत्त नामक चैत्य के समीप गोदोहासन से बैठे हुए आतापना ले रहे थे दो उपवास धारण किये हुए थे, सिर नीचे रख कर दोनों घुटने ऊँचे किये हुए ध्यान में लीन थे उस समय उन्हें अनन्तप्रतिपूर्ण-समग्र-निरावरण केवलज्ञान-दर्शन हुआ। अब भगवान् अर्हत्-जिन हुए, केवली-सर्वज्ञ-सर्वभावदर्शी हुए । देव, मनुष्य एवं असुरलोक पर्यायों के ज्ञाता हुए। आगमन, गमन, स्थिति, च्यवन, उपपात, प्रकट, गुप्त, कथित, अकथित आदि समस्त क्रियाओं व भावों के द्रष्टा हुए, ज्ञाता हुए। जिस समय भगवान् केवली, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी हुए उस समय भवनपति आदि चारों प्रकार के देवों व देवियों ने आकर भारी उत्सव किया। भगवान् ने अपनी आत्मा तथा लोक को सम्पूर्णतया देखकर पहले देवों को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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