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अंग ग्रन्थों का अंतरंग परिचय : आचारांग
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और बाद में मनुष्यों को धर्मोपदेश दिया । बाद में गौतम आदि श्रमण-निर्ग्रन्थों को भावनायुक्त पाँच महाव्रतों तथा छः जीवनिकायों का स्वरूप समझाया । भावना नामक प्रस्तुत चूलिका में इन पांच महाव्रतों का स्वरूप विस्तारपूर्वक समझाया गया है । साथ ही प्रत्येक व्रत की पांच-पांच भावनाओं का स्वरूप भी बताया गया है ।
ममत्वमुक्ति :
अन्त में विमुक्ति नामक चतुर्थ के फल की मीमांसा करते हुए भिक्षु पर्वत की भाँति निश्चल व दृढ़ रह उतार कर फेंक देना चाहिए । वीतरागता एवं सर्वज्ञता :
चूलिका में ममत्वमूलक आरम्भ और परिग्रह को उनसे दूर रहने को कहा गया है । उसे कर सर्प की केंचुली की भाँति ममत्व को
पातंजल योगसूत्र में यह बताया गया है कि अमुक भूमिका पर पहुँचे हुए साधक को केवलज्ञान होता है और वह उस ज्ञान द्वारा समस्त पदार्थों एवं समस्त घटनाओं को जान लेता है । इस परिभाषा के अनुसार भगवान् महावीर को भी केवली, सर्वज्ञ अथवा सर्वदर्शी कहा जा सकता है । किन्तु साधक-जीवन में प्रधानता एवं महत्ता केवलज्ञान - केवलदर्शन की नहीं है अपितु वीतरागता, वीतमोहता, निरास्रवता, निष्कषायता की है । वीतरागता की दृष्टि से ही आचार्य हरिभद्र ने कपिल और सुगत को भी सर्वज्ञ के रूप में स्वीकार किया है । भगवान् महावीर को ही सर्वज्ञ मानना व किसी अन्य को सर्वज्ञ न मानना ठीक नहीं | जिसमें वीतरागता है वह सर्वज्ञ है-उसका ज्ञान निर्दोष है । जिसमें सरागता है वह अल्पज्ञ है - उसका ज्ञान सदोष है ।
इस प्रकार आचारांग की समीक्षा पूरी करने के बाद अब द्वितीय अंग सूत्रकृतांग की समीक्षा प्रारम्भ की जाती है । इस अंगसूत्र व आगे के अन्य अंगसूत्रों की समीक्षा उतने विस्तार से न हो सकेगी जितने विस्तार से आचारांग की हुई है और न वैसा कोई निश्चित विवेचना क्रम ही रखा जा सकेगा ।
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