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________________ १६२ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ग्रहण का यह नियम औत्सर्गिक नहीं अपितु आपवादिक है । वृत्तिकार के अनुसार अमुक प्रकार के भिक्षुओं के लिए ही यह नियम है, सबके लिए नहीं । ग्राह्य जल : भिक्षु के लिए ग्राह्य पानी के प्रकार ये हैं : उत्स्वेदिभ-पिसी हुई वस्तु को भिगोकर रखा हुआ पानी, संस्वेदिम-तिल आदि बिना पिसी वस्तु को धोकर रखा हुआ पानी, तण्डुलोदक-चावल का धोवन, तिलोदक-तिल का धोवन, तुषोदक-तुष का धोवन, यवोदक-यव का घोवन, आयाम-आचाम्लअवश्यान, आरनाल-कांजी, शुद्ध अचित्त-निर्जीव पानी, आम्रपानक-आम का पानक, द्राक्षा का पानी, बिल्व का पानी, अमचूर का पानी, अनार का पानी, खजूर का पानी, नारियल का पानी, केर का पानी, बेर का पानी, आंवले का पानी, इमली का पानी इत्यादि । भिक्षु पकाई हुई वस्तु हो भोजन के लिए ले सकता है, कच्ची नहीं । इन वस्तुओं में कंद, मूल, फल, फूल, पत्र आदि सबका समावेश है । अग्राह्य भोजन : ___ कहीं पर अतिथि के लिए मांस अथवा मछली पकाई जाती हो अथवा तेल में पूए तले जाते हों तो भिक्षु लालचवश लेने न जाय । किसी रुग्ण भिक्ष के लिए उसकी आवश्यकता होने पर वैसा करने में कोई हर्ज नहीं। मूल सूत्र में एक जगह यह भी बताया गया है कि भिक्षु को अस्थिबहुल अर्थात् जिसमें हड्डी की बहुलता हो वैसा मांस व कंटकबहुल अर्थात् जिसमें कांटों की बहुलता हो वैसी मछली नहीं लेनी चाहिए । यदि कोई गृहस्थ यह कहे कि आपको ऐसा मांस व मछली चाहिए? तो भिक्षु कहे कि यदि तुम मुझे यह देना चाहते हो तो केवल पुद्गल भाग दो और हड्डियां व कांटे न आवे इसका ध्यान रखो। ऐसा कहते हुए भी गृहस्थ यदि हड्डीवाला मांस व कांटोंवाली मछली दे तो उसे लेकर एकान्त में जाकर किसी निर्दोष स्थान पर बैठ कर मांस व मछली खाकर बची हुई हड्डियों व कांटों को निर्जीव स्थान में डाल दे। यहाँ भी मांस व मछली का स्पष्ट उल्लेख है । वृत्तिकार ने इस विषय में स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि इस सूत्र को आपवादिक समझना चाहिए। किसी भिक्षु को लूता अथवा अन्य कोई रोग हुआ हो और किसी अच्छे वैध ने उसके उपचार के हेतु बाहर लगाने के लिए मांस आदि की सिफारिश की हो तो भिक्षु आपवादिक रूप से वह ले सकता है । लगाने के बाद बचे हुए कांटों व हड्डियों को निर्दोष स्थान पर फेंक देना चाहिए । यहाँ वृत्तिकार ने मूल में प्रयुक्त 'भुज' धातु का 'खाना' अर्थ न करते हुए 'बाहर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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