________________
अंग ग्रन्थों का अन्तरंग परिचय आचारांग
मक्खन, मधु, मद्य व मांस :
आस-पास के अमुक
किसी गाँव में निर्बल अथवा बुद्ध भिक्षुओं ने स्थिरवास कर रखा हो अथवा कुछ समय के लिए मासकल्पी भिक्षुओं ने निवास किया हुआ हो और वहाँ ग्रामाग्राम विचरते हुए अन्य भिक्षु अतिथि के रूप में आये हों जिन्हें देख कर पहले से ही वहाँ रहे हुए भिक्षु यों कहें कि हे श्रमणो ! यह गाँव तो बहुत छोटा है अथवा घर-घर सूतक लगा हुआ है इसलिए आप लोग गाँव में भिक्षा के लिए जाइए । वहाँ हमारे अमुक सम्बन्धी रहते हैं । आपको उनके यहाँ से दूध, दही, मक्खन, घी, गुड़, तेल, शहद, मद्य, मांस, जलेबी, श्रीखण्ड, पूड़ी आदि सब कुछ मिलेगा । आपको जो पसन्द हो वह लें । खा-पीकर पात्र साफ कर फिर यहाँ आ जावें । सूत्रकार कहते हैं कि भिक्षु को इस प्रकार भिक्षा प्राप्त नहीं करनी चाहिए । यहाँ जिन खाद्य पदार्थों के नाम गिनाये हैं उनमें मक्खन, शहद, मद्य व मांस का समावेश है । इससे मालूम होता है कि प्राचीन समय में कुछ भिक्षु मक्खन आदि लेते होंगे । यहाँ मक्खन, शहद, मद्य एवं मांस शब्द का कोई अन्य अर्थ नहीं है । वृत्तिकार स्वयं एतद्विषयक स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं कि कोई भिक्षु अतिप्रमादी हो, खाने-पीने का बहुत लालची हो तो वह शहद, मद्य एवं मांस ले भी सकता है अथवा कश्चित् अतिप्रमादावष्टब्धः अत्यन्तगृध्नुतया मधु मद्य- मांसानि अपि आश्रयेत् अतः तदुपादानम् ( आचारांग वृत्ति, पृ. ३०३ ) । वृत्तिकार ने इसका अपवादसूत्र के रूप में भी व्याख्यान किया है । मूलपाठ के सन्दर्भ को देखते हुए यह उत्सर्गसूत्र ही प्रतीत होता है, अपवादसूत्र नहीं ।
सम्मिलित सामग्री :
भिक्षा के लिए जाते हुए बीच में खाई, गढ आदि आने पर उन्हें लाँघ कर आगे न जाय । इसी प्रकार मार्ग में उन्मत्त साँढ, भैंसा, घोड़ा, मनुष्य आदि होने पर उस ओर न जाय । भिक्षा के लिए गये हुए जैन भिक्षु आदि को भिक्षा देने वाला गृहपति यदि यों कहे कि हे आयुष्मान् श्रमणो ! मैं अभी विशेष काम में व्यस्त हूँ | मैंने यह सारी भोजन-सामग्री आप सब को दे दी है । इसे आप लोग खा लीजिए अथवा आपस में बाँट लीजिए । ऐसी स्थिति में वह भोजन-सामग्री जैनभिक्षु स्वीकार न करे । कदाचित् कारणवशात् ऐसी सामग्री स्वीकार करनी पड़े तो ऐसा न समझे कि दाता ने यह सारी सामग्री मुझ अकेले को दे दी है अथवा मेरे लिए ही पर्याप्त है । उसे आपस में बांटते समय अथवा साथ में मिलकर खाते समय किसी प्रकार का पक्षपात अथवा चालाकी न करे । भिक्षा
११
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
१६१
www.jainelibrary.org