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________________ अंग ग्रन्थों का अन्तरंग परिचय : आचारांग १६३ लगाना' अर्थं किया है । यह अर्थ सूत्र के सन्दर्भ की दृष्टि से उपयुक्त प्रतीत नहीं होता । वृत्तिकार ने अपने युग के अहिंसाप्रधान प्रभाव से प्रभावित होकर ही मूल अर्थ में यत्र-तत्र इस प्रकार के परिवर्तन किए हैं । शय्यैषणा : शय्यैषणा नामक द्वितीय प्रकरण में कहा गया है कि जिस स्थान में गृहस्थ सकुटुम्ब रहते हों वहाँ भिक्षु नहीं रह सकता क्योंकि ऐसे स्थान में रहने से अनेक दोष लगते हैं । कई बार ऐसा होता है कि लोगों की इस मान्यता से कि ये श्रमण ब्रह्मचारी होते हैं अतः इनसे उत्पन्न होने वाली सन्तान तेजस्वी होती है, कोई स्त्री अपने पास रहने वाले भिक्षु को कामदेव के पंजे में फँसा देती है जिससे उसे संयमभ्रष्ट होना पड़ता है । प्रस्तुत प्रकरण में मकान के प्रकार, मकानमालिकों के व्यवसाय, उनके आभूषण, उनके अभ्यंग के साधन, उनके स्नान सम्बन्धी द्रव्य आदि का उल्लेख है । इससे प्राचीन समय के मकानों व सामाजिक व्यवसायों का - कुछ परिचय मिल सकता है । ईर्यापथ : पथ नामक तृतीय अध्ययन में भिक्षुओं के पाद-विहार, नौकारोहण, जलप्रवेश आदि का निरूपण किया गया है । ईर्यापथ शब्द बौद्ध परम्परा में भी प्रचलित है । तदनुसार स्थान, गमन, निषद्या और शयन इन चार का ईर्यापथ में समावेश होता है । विनयपिटक में एतद्विषक विस्तृत विवेचन हैं । विहार करते समय बौद्ध भिक्षु अपनी परम्परा के नियमों के अनुसार तैयार होकर चलता है इसी का नाम ईर्यापथ है । दूसरे शब्दों में अपने समस्त उपकरण साथ में लेकर सावधानीपूर्वक गमन करने, शरीर के अवयव न हिलाने, हाथ न उछालने, पैर न पछाड़ने का नाम ईर्यापथ है । जैन परम्पराभिमत ईर्यापथ के नियमों के अनुसार भिक्षु को वर्षाऋतु में प्रवास नहीं करना चाहिए। जहां स्वाध्याय, शौच आदि के लिए उपयुक्त स्थान न हो, संयम की साधना के लिए यथेष्ट उपकरण सुलभ न हों, अन्य श्रमण, ब्राह्मण, याचक आदि बड़ी संख्या में आये हुए हों अथवा आने वाले हों वहाँ भिक्षु को वर्षावास नहीं करना चाहिए । वर्षाऋतु बोत जाने पर व हेमन्त ऋतु आने पर मार्ग निर्दोष हो गये हों - जीवयुक्त न रहे हों तो भिक्षु को विहार कर देना चाहिए । चलते हुए पैर के नीचे कोई जीव-जन्तु मालूम पड़े तो पैर को ऊँचा रखकर चलना चाहिए, संकुचित कर चलना चाहिए, टेढ़ा रखकर चलना चाहिए, किसी भी तरह चलकर उस जीव की रक्षा करनी नजर रखकर सामने चार हाथ भूमि देखते हुए चाहिए । विवेकपूर्वक नीची Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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