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अंग ग्रन्थों का अन्तरंग परिचय : आचारांग
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भिक्षा के हेतु अन्य मत के साधु अथवा गृहस्थ के साथ किसी के घर में प्रवेश न करे अथवा घर से बाहर न निकले क्योंकि वृत्तिकार के कथनानुसार अन्य तीथिकों के साथ प्रवेश करने व निकलने वाले भिक्षु को आध्यात्मिक व बाह्य हानि होती है । इस नियम से एक बात यह फलित होती है कि उस जमाने में भी सम्प्रदाय-सम्प्रदाय के बीच परस्पर सद्भावना का अभाव था । __ आगे एक नियम यह है कि जो भोजन अन्य श्रमणों अर्थात् बौद्ध श्रमणों, तापसों, आजीविकों आदि के लिए अथवा अतिथियों, भिखारियों, वनीपकों आदि के लिये बनाया गया हो उसे जैनभिक्ष ग्रहण न करे । इस नियम द्वारा अन्य भिक्ष ओं अथवा श्रमणों को हानि न पहुँचाने की भावना व्यक्त होती है। इसी प्रकार जैन भिक्षु ओं को नित्यपिण्ड, अग्रपिण्ड (भोजन का प्रथम भाग) आदि देने वाले कुलों में से भिक्षा ग्रहण करने की मनाही की गई है। भिक्षा के योग्य कुल :
जिन कुलों में भिक्ष भिक्षा के लिये जाते थे वे ये है : उग्रकुल, भोगकुल, राजन्यकुल, क्षत्रियकुल, इक्ष्वाकुकुल, हरिवंशकुल, असिअकुल-गोष्ठों का कुल, वेसिअकुल-वश्यकुल,गंडागकुल-गांव में घोषणा करने वाले नापितों का कुल, कोट्टागकुल-बढ़ईकुल, बुक्कस अथवा बोक्कशालियकुल-बुनकरकुल । साथ ही यह भी बताया गया है कि जो कुल अनिन्दित है, अजुगुप्सित हैं उन्हीं में जाना चाहिए; निन्दित व जगुप्सित कुलों में नहीं जाना चाहिए । वृत्तिकार के कथनानुसार चमार कुल अथवा दासकुल निन्दित माने जाते हैं। इस नियम द्वारा यह फलित होता है कि द्वितीय श्रुतस्कन्ध की योजना के समय जैनधर्म में कुल के आधार पर उच्चकुल एवं नीचकुल की भावना को स्थान मिला हो। इसके पूर्व जैन प्रवचन में इस भावना की गंध तक नहीं मिलती । जहाँ खुद चाण्डाल के मुनि बनने के उल्लेख हैं वहाँ नीचकुल अथवा गहितकुल की कल्पना ही कैसे हो सकती है ? उत्सव के समय भिक्षा :
एक जगह खान-पान के प्रसंग से जिन विशेष उत्सवों के नामों का उल्लेख किया गया है वे ये हैं : इन्द्रमह, स्कंदमह, रुद्रमह, मुकुन्दमह, भूतमह, यक्षमह, नागमह, स्तूपमह, चैत्यमह, वृक्षमह, गिरिमह, कूपमह, नदीमह, सरोवरमह, सागरमह, आकरमह इत्यादि । इन उत्सवों पर उत्सव के निमित्त से आये हुए निमन्त्रित व्यक्तियों के भोजन कर लेने पर ही भिक्षु आहारप्राप्ति के लिए किसी
१. विशिष्ट वेषधारी भिखारी ।
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