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१५८ २२. जंति वोरा महाजाणं" २३. कसेहि अप्पाणं." २४. जरेहि अप्पाणं. २५. बहु दुक्खा हु जंतवो" २६. तुमं सि नाम तं चेव जं
हंतव्यं ति मन्नसि."
जेन साहित्य का बृहद् इतिहास वीर पुरुष महायान की ओर जाते हैं । आत्मा को अर्थात् खुद को कस । आत्मा को अर्थात् खुद को जोर्ण कर । सचमुच प्राणी बहुत दुःखी है । तू जिसे हनने योग्य समझता है वह तू खुद ही है।
द्वितीय श्रुतस्कन्ध :
आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की उपयुक्त समीक्षा के ही समान द्वितीय श्रुतस्कन्ध की भी समीक्षा आवश्यक है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध का सामान्य परिचय पहले दिया जा चुका है । यह पाँच चूलिकाओं में विभक्त है जिसमें आचार-प्रकल्प अथवा निशीथ नामक पंचम चुलिका आचारांग से अलग होकर एक स्वतन्त्र ग्रंथ ही बन गई है । अतः वर्तमान द्वितीय श्रुतस्कन्ध में केवल चार चूलिकाएं ही हैं । प्रथम चुलिका में सात प्रकरण हैं जिनमें से प्रथम प्रकरण आहारविषयक है। इस प्रकरण में कुछ विशेषता है। जिसकी चर्चा करना आवश्यक है।
आहार :
जैन भिक्षु के लिए यह एक सामान्य नियम है कि अशन, पान, खादिम एवं स्वादिम छोटे-बड़े जीवों से युक्त हो, काई से व्याप्त हो, गेहूँ आदि के दानों के सहित हो, हरी वनस्पति आदि से मिश्रित हो, ठण्डे पानी से भिगोया हुआ हो, जीवयुक्त हो, रजवाला हो उसे भिक्षु स्वीकार न करे । कदाचित् असावधानी से ऐसा भोजन आ भी जाये तो उसमें से जीवजन्तु आदि निकाल कर विवेकपूर्वक उसका उपयोग करें। भोजन करने के लिये स्थान कैसा हो ? उसके उत्तर में कहा गया है कि भिक्षु एकान्त स्थान हूँढ़े अर्थात् एकान्त में जाकर किसी वाटिका, उपाश्रय अथवा शून्यगृह में किसी के न देखते हुए भोजन करे। वाटिका आदि कैसे हों ? जिसमें बैठने की जगह अंडे न हों, अन्य जीवजन्तु न हों, अनाज के दाने अथवा फूल आदि के बीज न हों, हरे पत्ते आदि न पड़े हों, ओस न पड़ी हो, ठण्डा पानी न गिरा हो, काई न चिपको हो, गीली मिट्टी न हो, मकड़ी के जाले न हों ऐसे निर्जीव स्थान में बैठकर भिक्षु भोजन करे । आहार, पानी आदि में अखाद्य अथवा अपेय पदार्थ के निकलने पर उसे ऐसे स्थान में फेंके जहां एकान्त हो अर्थात् किसी का आना-जाना न हो तथा जीवजन्तु आदि भी न हों।
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