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अंग ग्रन्थों का अंतरंग परिचय : आचारांग
१५७ ८. जेण सिया तेण णो सिया..। जिसके द्वारा है उसके द्वारा नहीं है
अर्थात् जो अनुकूल है वह प्रतिकूल हो
जाता है। ९. जहा अंतो तहा बाहिं जैसा अन्दर है वैसा बाहर है और जैसा
. जहा बाहिं तहा अंतो .. बाहर है वैसा अन्दर है। १०. कामकामी खलु अयं पुरिसे यह पुरुष सचमुच कामकामी है । ११. कासंकासेऽयं खलु पुरिसे... यह पुरुष 'मैं करूँगा, मैं करूँगा' ऐसे ही
करता रहता है। १२. वेरं वड्ढइ अप्पणो... ऐसा पुरुष अपना वैर बढाता है । १३. सुत्ता अमुणी मुणिणो अमुनि सोये हुए हैं और मुनि सतत सययं जागरंति
जाग्रत हैं। १४. अकम्मस्स ववहारो न विज्जइ कर्महोन के व्यवहार नहीं होता। १५. अग्गं च मूलं च विगिच हे धीर पुरुष ! प्रपंच के अग्रभाग व मूल धीरे...
को काट डाल। १६. का अरइ के आणंदे एत्थं पि क्या अरति और क्या आनन्द, दोनों में अग्गहे चरे...
अनासक्त रहो।
क्खसि....
१७. पुरिसा ! तुममेव तुमं मित्तं हे पुरुष! तू ही अपना मित्र है फिर
किं बहिया मित्तमिच्छसि"" बाह्य मित्र की इच्छा क्यों करता है ? १८. पुरिसा ! अत्ताणमेव अभि- हे पुरुष ! तू अपने आप को ही निगृहीत निगिज्झ एवं दुक्खा पमो- कर । इस प्रकार तेरा दुःख दूर
होगा। १९. पुरिसा ! सच्चमेव समभि- हे पुरुष ! सत्य को ही सम्यक्रूप से जाणाहि"
समझ । २०. जे एगं नामे से बहु नामे, जे जो एक को झुकाता है वह बहुतों को बहु नामे से एगं नामे" झुकाता है और जो बहुतों को झुकाता है
वह एक को झुकाता है। २१. सव्वओ पमत्तस्स भयं प्रमादी को चारों ओर से भय है,
अप्पमत्तस्स नत्थि भयं. अप्रमादी को कोई भय नहीं।
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