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अंग ग्रन्थों का अंतरंग परिचय : आचारांग
१४३ ही करे। इसी प्रकार असमनोज्ञ से ये सब वस्तुएँ ले भी नहीं, न उसके निमन्त्रण को ही स्वीकार करे और न उससे अपनी सेवा ही करावे । जैन श्रमणों में अन्य श्रमणों के संसर्ग से किसी प्रकार की आचार-विचारविषयक शिथिलता न आ जाय, इसी दृष्टि से यह विधान है। इसके पीछे किसी प्रकार की द्वेष-बुद्धि अथवा निन्दा-भाव नहीं है। आचारांग के वचनों से मिलते वचन :
आचारांग के कुछ वचन अन्य शास्त्रों के वचनों से मिलते-जुलते हैं । आचारांग में एक वाक्य है 'दोहिं वि अंतेहिं अदिस्समाणे''-अर्थात् जो दोनों अन्तों द्वारा अदृश्यमान है अर्थात् जिसका पूर्वान्त-आदि नहीं है व पश्चिमान्तअन्त भी नहीं है । इस प्रकार जो ( आत्मा ) पूर्वान्त व पश्चिमान्त में दिखाई नहीं देता। इसी से मिलता हुआ वाय तेजोबिन्दु उपनिषद् के प्रथम अध्ययन के तेईसवें श्लोक में इस प्रकार है :
आदावन्ते च मध्ये च जनोऽस्मिन्न विद्यते ।
येनेदं सततं व्याप्तं स देशो विजनः स्मृतः ।। यह पद्य पूर्ण आत्मा अथवा सिद्ध आत्मा के स्वरूप के विषय में है।
आचारांग के उपर्युक्त वाक्य के बाद ही दूसरा वाक्य है ‘स न छिज्जइ न भिज्जइ न डज्झइ न हम्मइ कंचणं सव्वलोए' अर्थात् सर्वलोक में किसी के द्वारा आत्मा का छेदन नहीं होता, भेदन नहीं होता, दहन नहीं होता, हनन नहीं होता। इससे मिलते हुए वाक्य उपनिषद् तथा भगवद्गीता में इस प्रकार हैं :
न जायते न म्रियते न मुह्यति न भिद्यते न दह्यते । न छिद्यते न कम्पते न कुप्यते सर्वदहनोऽयमात्मा ।। --सुबालोपनिषद्, नवम खण्ड; ईशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषद् पृ. २१०.
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च । नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ।।
-भगवद्गीता, अ. २, श्लो० २३. 'जस्स नत्थि पुरा पच्छा मज्झे तस्स कओ सिया२ अर्थात् जिसका आगा
शब्द का सम्बन्ध भी 'अंगपुछ' शब्द के साथ है। 'पोंछना' क्रियापद इस
'पुछ' धातु से ही सम्बन्ध रखता है-पोंछना माने परिमार्जन करना । १. आचारांग, १.३.३. २. वही १.४.४.
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