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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
विनीतवृत्ति वाले ही होते थे, फिर भी कुछ ऐसे निर्ग्रन्थ भी थे जो वर्तमान काल के अविनीत शिष्यों की भाँति अपने हितैषी गुरु के सामने होने में भी नहीं हिचकिचाते । आचारांग के छठे अध्ययन के चौथे उद्देशक में इसी प्रकार के शिष्यों को उद्दिष्ट करके बताया गया है कि जिस प्रकार पक्षी के बच्चे को उसकी माता दाने दे-देकर बड़ा करती है उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष अपने शिष्यों को दिन-रात अध्ययन कराते हैं । शिष्य ज्ञान प्राप्त करने के बाद 'उपशम' को त्याग कर अर्थात् शान्ति को छोड़कर ज्ञान देनेवाले महापुरुषों के सामने कठोर भाषा का प्रयोग प्रारम्भ करते हैं ।
भगवान् महावीर के समय में उत्कृष्ट त्याग, तप व संयम के अनेक जीते-जागते आदर्शों की उपस्थिति में भी कुछ श्रमण तप-त्याग अंगीकार करने के बाद भी उसमें स्थिर नहीं रह सकते थे एवं छिपे छिपे दूषण सेवन करते थे । आचार्य के पूछने पर झूठ बोलने तक के लिए तैयार हो जाते थे । प्रस्तुत सूत्र में ऐसा एक उल्लेख उपलब्ध है जो इस प्रकार हैं : 'बहुक्रोधी. बहुमानी, बहुकपटी, बहुलोभी, नट की भाँति विविध ढंग से व्यवहार करने वाला, शठवत्, विविध संकल्प वाला, आस्रवों में आसक्त, मुँह से उत्थित वाद करनेवाला, 'मुझे कोई देख न ले' इस प्रकार के भय से अपकृत्य करने वाला सतत मूढ़ धर्म को नहीं जानता । जो चतुर आत्मार्थी है वह कभी अब्रह्मचर्य का सेवन नहीं करता । कदाचित् कामावेश में अब्रह्मचर्य का सेवन हो जाय तो उसका अपलाप करना अर्थात् आचार्य के सामने उसे स्वीकार न करना महान् मूर्खता है।' इस प्रकार के उल्लेख यही बताते हैं कि उग्र तप, उग्र संयम, उग्र ब्रह्मचर्य युग में भी कोई-कोई ऐसे निकल आते हैं । यह वासना व कषाय की विचित्रता है ।
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जैन श्रमणों का अन्य श्रमणों के साथ किस प्रकार का सम्बन्ध रहता था, यह भी जानने योग्य है । इस विषय में आठवें अध्ययन के प्रथम उद्देशक के प्रारम्भ में ही बताया गया है कि समनोज्ञ ( समान आचार-विचार वाला) भिक्षु असमनोज्ञ ( भिन्न आचार-विचार वाला) को भोजन, पानी, वस्त्र, पात्र, कम्बल व पादपुंछ न दे, इसके लिए उसे निमन्त्रित भी न करें, न उसकी आदरपूर्वक सेवा
१. मूलशब्द 'पायपुंछण' है । प्राकृत भाषा में 'पुंछ' धातु परिमार्जन अर्थ में आता है | देखिए - प्राकृत-व्याकरण, ८.४.१०४. संस्कृत भाषा का 'मृज्' धातु और प्राकृत भाषा का 'पुंछ' धातु समानार्थक हैं । अतः 'पायपुंछण' शब्दका संस्कृत रूपान्तर 'पादमार्जन' हो सकता है। जैनपरम्परा में 'पुंजणी' नाम का एक छोटा-सा उपकरण प्रसिद्ध है । इसका सम्बन्ध भी 'पुंछ ' धातु है और यह उपकरण परिमार्जन के लिए ही उपयुक्त होता है । 'अंगोछा'
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