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अंग ग्रन्थों का अंतरंग परिचय : आचारांग
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सर्व प्राण, सर्वभूत, सर्व जीत, सर्व सत्त्व हनन करने योग्य हैं, संताप पहुँचाने योग्य हैं, उपद्भुत करने योग्य हैं एवं स्वामित्व करने योग्य हैं । ऐसा करने में कोई दोष नहीं । इस प्रकार कुछ श्रमणों व ब्राह्मणों के मत का निर्देश कर सूत्रकार ने अपना अभिमत बताते हुए कहा है कि यह वचन अनार्यों का है अर्थात् इस प्रकार हिंसा का समर्थन करना अनार्यमार्ग है । इसे आर्यों ने दुर्दर्शन कहा है, दुःश्रवण कहा है, दुर्मत कहा है, दुविज्ञान कहा है एवं दुष्प्रत्यवेक्षण कहा है। हम ऐसा कहते हैं, ऐसा भाषण करते हैं; ऐसा बताते हैं, ऐसा प्ररूपण करते हैं कि किसी भी प्राण, किसी भी भूत, किसी भी जीव, किसी भी सत्व को हनना नहीं चाहिए, त्रस्त नहीं करना चाहिए, परिताप नहीं पहुँचाना चाहिए, उपद्रुत नहीं करना चाहिए एवं उस पर स्वामित्व नहीं करना चाहिए । ऐसा करने में ही दोष नहीं है । यह आर्यवचन है । इसके बाद सूत्रकार कहते हैं कि हिंसा का विधान करने वाले, एवं उसे निर्दोष मानने वाले समस्त प्रवादियों को एकत्र कर प्रत्येक को पूछना चाहिए कि तुम्हें मन की अनुकूलता दुःखरूप लगती है या प्रतिकूलता ? यदि वे कहें कि हमें तो मन की प्रतिकूलता दुःखरूप लगती है तो उनसे कहना चाहिए कि जैसे तुम्हें मन की प्रतिकूलता दुःखरूप लगती है वैसे ही समस्त प्राणियों, भूतों, जीवों व सत्त्वों को भी मन की प्रतिकूलता दुःखरूप लगती है ।
ये वादी आभार्थी हैं,
विमोह नामक आठवें अध्ययन में कहा गया है कि प्राणियों का हनन करने वाले हैं, हनन कराने वाले हैं, हनन करने वालों का समर्थन करने वाले हैं, अदत्त को लेने वाले हैं । वे निम्न प्रकार से भिन्न-भिन्न वचन बोलते हैं : लोक है, लोक नहीं है, लोक अध्रुव है, लोक सादि है, लोक अनादि है, लोक सान्त है, लोक अनन्त है, सुकृत है, दुष्कृत है, कल्याण है, पाप है, साधु है, असाधु है, सिद्धि है, असिद्धि है, नरक है, अनरक है । इस प्रकार की तत्त्वविषयक विप्रतिपत्ति वाले ये वादी अपने-अपने धर्म का प्रतिपादन करते हैं । सूत्रकार ने सब वादों को सामान्यतया यादृच्छिक ( आकस्मिक ) एवं हेतुशून्य कहा है तथा किसी नाम विशेष का उल्लेख नहीं किया हैं । इनकी व्याख्या करते हुए चूर्णिकार व वृत्तिकार ने विशेषतः वैदिक शाखा के सांख्य आदि मतों का उल्लेख किया है एवं शाक्य अर्थात् बौद्ध भिक्षुओं के आचरण तथा उनकी अमुक मान्यताओं का निर्देश किया है । आचारांग की ही तरह दीघनिकाय के ब्रह्मात्त में भी भगवान् बुद्ध के समय के अनेक वादों का उल्लेख है । निर्ग्रन्थसमाज :
तत्कालीन निर्ग्रन्थ समाज के वातावरण पर भी आचारांग में प्रकाश डाला गया है । उस समय के निर्ग्रन्थ सामान्यतया आचारसम्पन्न, विवेकी, तपस्वी एवं
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