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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास हैं कि ये अनगार बौद्ध परम्परा के श्रमण हैं । ये लोग ग्राम आदि दान में स्वीकार करते हैं एवं ग्रामदान आदि स्वीकृत कर वहाँ की भूमि को ठीक करने के लिए हल, कुदाली आदि का प्रयोग करते हैं तथा पृथ्वी का व पृथ्वी में रहे हुए कीटपतंगों का नाश करते हैं। इसी प्रकार कुछ अनगार ऐसे हैं जो स्नान आदि द्वारा जल की व जल में रहे हुए जीवों की हिंसा करते हैं। स्नान नहीं करने वाले आजीविक तथा अन्य सरजस्क श्रमण स्नानादि प्रवृत्ति के निमित्त पानी की हिंसा नहीं करते किन्तु पीने के लिए तो करते ही हैं। बौद्ध श्रमण (तच्चणिया) नहाने व पीने दोनों के लिए पानी की हिंसा करते हैं। कुछ ब्राह्मण स्नान-पान के अतिरिक्त यज्ञ के बर्तनों व अन्य उपकरणों को धोने के लिए भी पानी की हिंसा करते हैं। इस प्रकार आजीविक श्रमण, सरजस्क श्रमण, बौद्ध श्रमण व ब्राह्मण श्रमण किसी न किसी कारण से पानी का आलंभन-हिंसा करते हैं । मूल सूत्र में यह बताया गया है कि 'इहं च खलु भो अणगाराणं उदयं जीवा वियाहिया' अर्थात् ज्ञातपुत्रीय अनगारों के प्रवचन में ही जल को जीवरूप कहा गया है, 'न अण्णेसि' (चूणि) अर्थात् दूसरों के प्रवचन में नहीं। यहाँ 'दूसरों' का अर्थ बौद्ध श्रमण समझना चाहिए। वैदिक परम्परा में तो जल को जीवरूप ही माना गया है, जैसा कि पहले कहा जा चुका है। केवल बौद्ध परम्परा ही ऐसी है जो पानी को जीवरूप नहीं मानती। इस विषय में मिलिंदपञ्ह में स्पष्ट उल्लेख है कि पानी में जीव नहीं है-सत्त्व नहीं है : न हि महाराज ! उदकं जीवति, नत्थि उदके जीवो वा सत्तो वा ।
द्वितीय अध्ययन के द्वितीय उद्देशक में बताया गया है कि कुछ लोग यह मानते हैं कि हमारे पास देवों का बल है, श्रमणों का बल है। ऐसा समझ कर वे अनेक हिंसामय आचरण करने से नहीं चूकते । वे ऐसा समझते हैं कि ब्राह्मणों को खिलायेंगे तो परलोक में सुख मिलेगा। इसी दृष्टि से वे यज्ञ भी करते हैं । बकरों, भैंसों, यहाँ तक कि मनुष्यों के वध द्वारा चंडिकादि देवियों के याग करते हैं एवं चरकादि ब्राह्मणों को दान देंगे तो धन मिलेगा, कीर्ति प्राप्त होगी व धर्म सधेगा, ऐसा समझकर अनेक आलंभन-समालंभन करते रहते हैं । इस उल्लेख में भगवान् महावीर के समय में धर्म के नाम पर चलनेवाली हिंसक प्रवृत्ति का स्पष्ट निर्देश है। चतुर्थ अध्ययन के द्वितीय उद्देशक में बताया गया है इस जगत् में कुछ श्रमण व ब्राह्मण भिन्न-भिन्न रीति से विवाद करते हुए कहते हैं कि हमने देखा है, हमने सुना है हमने माना है, हमने विशेष तौर से जाना है, तथा ऊँची-नीची व तिरछी सब दिशाओं में सब प्रकार से पूरी सावधानीपूर्वक पता लगाया है कि
१. ५० २५३-२५५.
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