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अंग ग्रन्थों का अंतरंग परिचय : आचारांग
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से कही गई है । उसमें चुल्हे द्वारा अग्नि की हिंसा का, घट द्वारा जल की हिंसा का एवं इसी प्रकार के अन्य साधनों द्वारा अन्य प्रकार की हिंसा का निषेध किया गया है । घट, चूल्हा, चक्की आदि को जीववध का स्थान बताया गया है एवं गृहस्थ के लिए इनके प्रति सावधानी रखने का विधान किया गया है ।
शस्त्रपरिज्ञा में जो मार्ग बताया गया है वह पराकाष्ठा का मार्ग है । उस पराकाष्ठा के मार्ग पर पहुँचने के लिए अन्य अवान्तर मार्ग भी हैं । इनमें से एक मार्ग है गृहस्थाश्रम का । इसमें भी चढ़ते-उतरते साधन हैं । इन सब में एक बात सर्वाधिक महत्त्व की है और वह है प्रत्येक प्रकार की मर्यादा का निर्धारण । इसमें भी ज्यों-ज्यों आगे बढ़ा जाय त्यों-त्यों मर्यादा का क्षेत्र बढ़ाया जाय एवं अन्त में अनासक्त जीवन का अनुभव किया जाय। इसी का नाम अहिंसक जीवनसाधना अथवा आध्यात्मिक शोधन है । अध्यात्म शुद्धि के लिए देह, इन्द्रियाँ, मन तथा अन्य बाह्य पदार्थ साधनरूप हैं । इन साधनों का उपयोग अहिंसक वृत्तिपूर्वक होना चाहिए | इस प्रकार की वृत्ति के लिए संकल्पशुद्धि परमावश्यक है । सङ्कल्प की शुद्धि के बिना सब क्रियाकाण्ड व प्रवृत्तियाँ निरर्थक हैं । प्रवृत्ति भले ही अल्प हो किन्तु होनी चाहिए सङ्कल्पशुद्धिपूर्वक । आध्यात्मिक शुद्धि ही जिनका लक्ष्य है वे केवल भेड़चाल अथवा रूढ़िगत प्रवाह में बँध कर नहीं चल सकते । उनके लिए विवेकयुक्त सङ्कल्पशीलता की महती आवश्यकता होती है । देहदमन, इन्द्रियदमन, मनोदमन, तथा आरम्भ - समारम्भ, व विषय - कषायों के त्याग के सम्बन्ध में जो बातें शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन में बताई गई हैं वे सब बातें भिन्न-भिन्न रूप में भिन्नभिन्न स्थानों पर गीता एवं मनुस्मृति में भी बताई गई हैं । मनु ने स्पष्ट कहा है कि लोहे के मुख वाला काष्ठ ( हल आदि ) भूमि का एवं भूमि में रहे हुए अन्यअन्य प्राणियों का हनन करता है । अतः कृषि की वृत्ति निन्दित है । यह विधान अमुक कोटि के सच्चे ब्राह्मण के लिए है और वह भी उत्सर्ग के रूप में । अपवाद के तौर पर तो ऐसे ब्राह्मण के लिए भी इससे विपरीत विधान हो सकता है । भूमि की ही तरह जल आदि से संबंधित आरम्भ समारम्भ का भी मनुस्मृति में निषेध किया गया है । गीता में 'सर्वारम्भपरित्यागी" को पण्डित कहा गया है।
१. मनुस्मृति, अ० ३, श्लो० ६८ ।
२. कृषि साध्विति मन्यन्ते सा वृत्तिः सद्विगर्हिता ।
भूमि भूमिशयांश्चैव हन्ति काष्ठमयोमुखम् ||
- मनुस्मृति, अ० १०, श्लो० ८४.
३. अ० ४, श्लो० २०१-२.
४. अ० १२, श्लो० १६; अ० ४, श्लो० १९.
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