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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
अर्थात् इनकी अपेक्षा से मिट्टी व पानी के प्रयोग की संख्या में विभिन्नता बताई गई है । भगवान् महावीर ने समाज को आन्तरिक शुद्धि की ओर मोड़ने के लिए कहा कि इस प्रकार की बाह्य शुद्धि हिंसा को बढ़ाने का ही एक साधन है । इससे पृथ्वी, जल, अग्नि, वनस्पति तथा वायु के जीवों का कचूमर निकल जाता है । यह घोर हिंसा की जननी है । इससे अनेक अनर्थ उत्पन्न होते हैं । श्रमण व ब्राह्मण को सरल बनना चाहिए, निष्कपट होना चाहिए, पृथ्वी आदि के जीवों का हनन नहीं करना चाहिए । पृथ्वी आदि प्राणरूप हैं । इनमें आगन्तुक जीव भी रहते हैं । अतः शौच के निमित्त इनका उपयोग करने से इनकी तथा इनमें रहने वाले प्राणियों की हिंसा होती है । अतः यह प्रवृत्ति शस्त्ररूप है । आंतरिक शुद्धि अभिलाषियों को इसका ज्ञान होना चाहिए । यही भगवान् महावीर के शस्त्रपरिज्ञा प्रवचन का सार है ।
लिए उन्हें मारते हैं ।
रूप, रस, गन्ध, शब्द व स्पर्श अज्ञानियों के लिए आवर्तरूप हैं, ऐसा समझ कर विवेकी को इनमें मूच्छित नहीं होना चाहिए । यदि प्रमाद के कारण पहले इनकी ओर झुकाव रहा हो तो ऐसा निश्चय करना चाहिए कि अब मैं इनसे बचूंगा – इनमें नहीं फलूँगा- पूर्ववत् आचरण नहीं करूँगा । रूपादि में लोलुप व्यक्ति विविध प्रकार की हिंसा करते दिखाई देते हैं । कुछ लोग प्राणियों का वध कर उन्हें पूरा का पूरा पकाते हैं । कुछ चमड़ी के कुछ केवल मांस, रक्त, पित्त, चरबी, पंख, पूँछ, बाल, सींग, दाँत, नख अथवा हड्डी के लिए उनका वध करते हैं । कुछ शिकार का शौक पूरा करने के लिए प्राणियों का वध करते हैं । इस प्रकार कुछ लोग अपने किसी न लिए जीवों का क्रूरतापूर्वक नाश करते हैं तो कुछ निष्प्रयोजन करने में तत्पर रहते हैं । कुछ लोग केवल तमाशा देखने के लिए सांड़ों, हाथियों, मुर्गों वगैरह को लड़ाते हैं । कुछ साँप आदि को मारने में अपनी बहादुरी समझते हैं तो कुछ साँप आदि को मारना अपना धर्म समझते हैं । इस प्रकार पूरे शस्त्र - परिज्ञा अध्ययन में भगवान् महावीर ने संसार में होने वाली विविध प्रकार की हिंसा के विषय में अपने विचार व्यक्त किये हैं एवं उसके परिणाम की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित किया है। उन्होंने बताया है कि यह हिंसा ही ग्रन्थ है - परिग्रहरूप है, मोहरूप है, माररूप है, नरकरूप है ।
किसी स्वार्थ के ही उनका नाश
खोरदेह-अवेस्ता नामक पारसी धर्मग्रन्थ ' में पृथ्वी, जल, अग्नि, वनस्पति, पशु, पक्षी, मनुष्य आदि के साथ किसी प्रकार का अपराध न करने की अर्थात् उनके प्रति घातक व्यवहार न करने की शिक्षा दो गई है । यही बात मनुस्मृति में दूसरी तरह
१. 'पतेत पशेमानी' नामक प्रकरण.
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