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________________ १३८ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास एवं बताया गया है कि जो समस्त आरम्भ का परित्यागी है वह गुणातीत है। उसमें देहदमन की भी प्रतिष्ठा की गई है एवं तप के बाह्य व आन्तरिक स्वरूप पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है । जैन परम्परा के त्यागी मुनियों के तपश्चरण की भांति कायक्लेशरूप तप सम्बन्धी प्ररूपणा वैदिक परम्परा को भी अभीष्ट है । इसी प्रकार जलशौच अर्थात् स्नान आदिरूप बाह्य शौच का त्याग भी वैदिक परम्परा को इष्ट है । आचारांग के प्रथम व द्वितीय दोनों श्रुतस्कन्धों में आचारविचार का जो वर्णन है वह सब मनुस्मृति के छठे अध्याय में वर्णित वानप्रस्थ व संन्यास के स्वरूप के साथ मिलता-जुलता है। भिक्षा के नियम, कायक्लेश सहन करने की पद्धति, उपकरण, वृक्ष के मूल के पास निवास, भूमि पर शयन, एक समय भिक्षा-चर्या, भूमि का अवलोकन करते हुए गमन करने की पद्धति, चतुर्थ भक्त, अष्टम भक्त आदि अनेक नियमों का जैन परम्परा के त्यागी वर्ग के नियमों के साथ साम्य है । इसी प्रकार का जैन परम्परा के नियमों का साम्य महाभारत के शान्तिपर्व में उपलब्ध तप एवं त्याग के वर्णन के साथ भी है । बौद्ध परम्परा के नियमों में इस प्रकार को कठोरता एवं देहदमनता का प्रायः अभाव दिखाई देता है। __आचारांग के प्रथम अध्ययन शस्त्रपरिज्ञा में समन आचारांग का सार आ जाता है अतः यहाँ अन्य अध्ययनों का विस्तारपूर्वक विवेचन न करते हुए. आचारांग में आने वाले परमतों का विचार किया जाएगा । आचारांग में उल्लिखित परमत : आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में जो परमतों का उल्लेख है वह किसी विशेष नामपूर्वक नहीं अपितु 'एगे' अर्थात् 'कुछ लोगों' के रूप में है जिसका विशेष स्पष्टीकरण चूणि अथवा वृत्ति में किया गया है । प्रारम्भ में ही अर्थात् प्रथम अध्ययन के प्रथम वाक्य में हो यह बताया गया है कि 'इह एगेसि नो सन्ना भवइ' अर्थात् इस संसार में कुछ लोगों को यह भान नहीं होता कि मैं पूर्व से आया हुआ हूँ या दक्षिण से आया हुआ हूँ अथवा किस दिशा या विदिशा से आया हुआ हूँ अथवा ऊपर से या नीचे से आया हुआ है ? इसी प्रकार 'एगेसि नो नायं भवइ' अर्थात् कुछ को यह पता नहीं होता कि मेरी आत्मा औपपातिक है अथवा अनौपपातिक, मैं कौन १. सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्चते-अ० १४, श्लो० २५. २. अ० १७, श्लो० ५-६, १४, १६-७. ३. देखिये-श्री लक्ष्मणशास्त्री जोशी लिखित वैदिक संस्कृति का इतिहास ( मराठी ), पृ० १७६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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