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अंग ग्रन्थों का अंतरंग परिचय : आचारांग
१२९ की सम्भावना बहुत कम हो गई। देवद्धिगणिक्षमाश्रमण ने किसी प्रकार की नई वाचना का प्रवर्तन नहीं किया अपितु जो श्रुतपाठ पहले की वाचनाओं में निश्चित हो चुका था उसी को एकत्र कर व्यवस्थित रूप से ग्रन्थबद्ध किया । एतद्विषयक उपलब्ध उल्लेख इस प्रकार है :
वलहिपुरम्मि नयरे देवढिपमुहेण समणसंधेण ।
पुत्थाइ आगमु लिहिओ नवतयअसीआओ वोराओ । अर्थात् वलभीपुर नामक नगर में देवद्धिप्रमुख श्रमण संघ ने वीरनिर्वाण ९८० (मतान्तर से ९९३) में आगमों को ग्रन्थबद्ध किया । देवद्धिगणि क्षमाश्रमण :
वर्तमान समस्त जैन प्रबन्ध-साहित्य में कहीं भी देवद्धिगणि क्षमाश्रमण जैसे
१. आगमों को पुस्तकारूढ करनेवाले आचार्य का नाम देवद्धिगणिक्षमाश्रमण
है । अमुक विशिष्ट गीतार्थ पुरुष को 'गणी' और 'क्षमाश्रमण' कहा जाता है । जैसे विशेषावश्यकभाष्य के प्रणेता जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण हैं वैसे ही उच्चकोटि के गीतार्थ देवद्धि भी गणिक्षमाश्रमण हैं । इनकी गुरुपरंपरा का क्रम कल्पसूत्र को स्थविरावली में दिया हुआ है । इनको किसी भी ग्रन्थकार ने वाचकवंश में नहीं गिनाया। अतः वाचकों से ये गणिक्षमाश्रमण अलग मालूम होते हैं और वाचकवंश की परम्परा अलग मालूम होती है। नन्दिसूत्र के प्रणेता देववाचक नाम के आचार्य हैं। उनकी गुरुपरंपरा नदिसूत्र की स्थविरावली में दी है और वे स्पष्टरूप से वाचकवंश की परंपरा में है अतः देववाचक और देवद्धिगणिक्षमाश्रमण अलग-अलग आचार्य के नाम हैं तथा किसी प्रकार से कदाचित् गणिक्षमाक्षमण पद और वाचक पद भिन्न नहीं है ऐसा मानने पर भी इन दोनों आचार्यों की गुरु परम्परा भी एक सी नहीं मालूम होती। इसलिए भी ये दोनों भिन्न-भिन्न आचार्य हैं । प्रश्नपद्धति नामक छोटे-से ग्रन्थ में लिखा है कि नंदिसूत्र देववाचक ने बनाया है और पाठों को बारबार न लिखना पड़े इसलिए देववाचककृत नन्दिसूत्र की साक्षी पुस्तकारूढ़ करते समय देवद्धिगणिक्षमाश्रमण ने दी हैं। ये दोनों आचार्य भिन्न-भिन्न होने पर ही प्रश्नपद्धति का यह उल्लेख संगत हो सकता है । प्रश्नपद्धति के कर्ता के विचार से ये दोनों एक ही होते तो वे ऐसा लिखते कि नंदिसूत्र देववाचक की कृति है और अपनो ही कृति की साक्षी देवद्धि ने दी है, परन्तु उन्होंने ऐसा न लिखकर ये दोनों भिन्न-भिन्न हों, इस प्रकार निर्देश किया है। प्रश्नपद्धति के कर्ता मुनि हरिश्चन्द्र हैं जो अपने को नवांगीवृत्तिकार या अभयदेवसूरिके शिष्य कहते हैं। देखो प्रश्नपद्धति, पृ० २.
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