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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास पूर्वगतश्रुत तो सर्वथा नष्ट ही हो गया। केवल भद्रबाह स्वामी को वह याद था जो उनके बाद अधिक लम्बे काल तक न टिक सका। वर्तमान में इसका नाम निशान भी उपलब्ध नहीं । इस समय जो एकादश अङ्ग उपलब्ध हैं उनके विषय में परिशिष्ट पर्व के नवम सर्ग में बताया गया है कि दुष्काल समाप्त होने के बाद (वीरनिर्वाण दूसरी शताब्दी) पाटलिपुत्र में श्रमणसंघ एकत्रित हुआ व जो अङ्ग, अध्ययन, उद्देशक आदि याद थे उन सबका संकलन किया : ततश्च एकादशाङगानि श्रीसंघ अमेलयत् तदा। जिन-प्रवचन के संकलन की यह प्रथम संगीति-वाचना है। इसके बाद देश में दूसरा दुष्काल पड़ा जिससे कण्ठस्थ श्रुत को फिर हानि पहुंची । दुष्काल समाप्त होने पर पुनः (वीरनिर्वाण ९ वीं शताब्दी) मथुरा में श्रमणसंघ एकत्रित हुआ व स्कन्दिलाचार्य की अध्यक्षता में जिन-प्रवचन की द्वितीय वाचना हुई। मथुरा में होने के कारण इसे माथुरी वाचना भी कहते हैं । भद्रबाहुस्वामी एवं स्कन्दिलाचार्य के समय के दुष्काल व श्रुतसंकलन का उल्लेख आवश्यकचूणि तथा नन्दिचूणि में उपलब्ध है। इनमें दुष्काल का समय बारह वर्ष बताया गया है। माथुरी वाचना की समकालीन एक अन्य वाचना का उल्लेख करते हुए कहावली नामक ग्रन्थ में कहा गया है कि वलभी नगरी में आचार्य नागार्जुन की अध्यक्षता में भी इसी प्रकार की एक वाचना हुई थी जिसे वालभी अथवा नागार्जुनीय वाचना कहते हैं । इन वाचनाओं में जिन-प्रवचन ग्रन्थबद्ध किया गया, इसका समर्थन करते हुए आचार्य हेमचन्द्र योगशास्त्र की वृत्ति (योगशास्त्रप्रकाश ३, पत्र २०७) में लिखते हैं : जिनवचनं च दुष्षमाकालवशात् उच्छिन्नप्रायमिति मत्वा भगवद्भिर्नागार्जुन-स्कन्दिलाचार्यप्रभृतिभिः पुस्तकषु न्यस्तम्-काल की दुष्षमता के कारण (अथवा दुष्षमाकाल के कारण). जिनप्रवचन को लगभग उच्छिन्न हुआ जान कर आचार्य नागार्जुन, स्कन्दिलाचार्य आदि ने उसे पुस्तकबद्ध किया । माथुरी वाचना वालभी वाचना से अनेक स्थानों पर अलग पड़ गई। परिणामतः वाचनाओं में पाठभेद हो गये। ये दोनों श्रुतधर आचार्य यदि परस्पर मिलकर विचार-विमर्श करते तो सम्भवतः वाचनाभेद टल सकता किन्तु दुर्भाग्य से ये न तो वाचना के पूर्व इस विषय में कुछ कर सके और न वाचना के पश्चात् ही परस्पर मिल सके । यह वाचनाभेद उनकी मृत्यु के बाद भी वैसा का वैसा ही बना रहा । इसे वृत्ति कारों ने 'नागार्जुनीयाः पुनः एवं पठन्ति' आदि वाक्यों द्वारा निर्दिष्ट किया है । माथुरी व वालभी वाचना सम्पन्न होने के बाद वीरनिर्वाण ९८० अथवा ९९३ में देवद्धिगणि क्षमाश्रमण ने वलभी में संघ एकत्रित कर उस समय में उपलब्ध समस्त श्रुत को पुस्तकबद्ध किया। उस समय से सारा श्रुत ग्रन्थबद्ध हो गया। तब से उसके विच्छेद अथवा विपर्यास
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