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________________ अंग ग्रन्थों का अंतरंग परिचय : आचारांग १२७ हों एवं सुन कर उसे तीसरे महाशय को सुनाते हों। इससे यह ध्वनित होता है कि भगवान् के मुख से निकले हुए शब्द तो वे ज्यों-ज्यों बोलते गये त्यों-त्यों विलीन होते गये। बाद में भगवान् की कही हुई बात बताने का प्रसंग आने पर सुनने वाले महाशय यों कहते हैं कि मैंने भगवान् से ऐसा सुना है। इसका अर्थ यह हुआ कि लोगों के पास भगवान् के खुद के शब्द नहीं आते अपितु किसी सुनने वाले के शब्द आते हैं । शब्दों का ऐसा स्वभाव होता है कि वे जिस रूप से बाहर आते हैं उसी रूप में कभी नहीं टिक सकते। यदि उन्हें उसी रूप में सुरक्षित रखने की कोई विशेष व्यवस्था हो तो अवश्य वैसा हो सकता है। वर्तमान युग में इस प्रकार के वैज्ञानिक साधन उपलब्ध हैं । ऐसे साधन भगवान् महावीर के समय में विद्यमान न थे। अतः हमारे सामने जो शब्द है वे साक्षात् भगवान् के नहीं अपितु उनके हैं जिन्होंने भगवान् से सुने हैं। भगवान् के खुद के शब्दों व श्रोता के शब्दों में शब्द के स्वरूप की दृष्टि से वस्तुतः बहुत अन्तर है । फिर भी ये शब्द भगवान् के ही हैं, इस प्रकार की छाप मन परसे किसी भी प्रकार नहीं मिट सकती। इसका कारण यह है कि शब्दयोजना भले ही श्रोता की हो, आशय तो भगवान् का ही है। अंगसूत्रों की वाचनाएँ : ऐसी मान्यता है कि पहले भगवान् अपना आशय प्रकट करते हैं, बाद में उनके गणधर अर्थात् प्रधान शिष्य उस आशय को अपनी-अपनी शैली में शब्दबद्ध करते हैं। भगवान महावीर के ग्यारह गणधर थे। वे भगवान् के आशय को अपनी-अपनी शैली व शब्दों में ग्रथित करने के विशेष अधिकारी थे। इससे फलित होता है कि एक गणधर की जो शैली व शब्दरचना हो वही दूसरे की हो भी और न भी हो । इसीलिए कल्पसूत्र में कहा गया है कि प्रत्येक गणधर की वाचना भिन्न-भिन्न थी। वाचना अर्थात् शैली एवं शब्दरचना। नन्दिसूत्र व समवायांग में भी बताया गया है कि प्रत्येक अङ्गसूत्र की वाचना परित्त (अर्थात् परिमित) अथवा एक से अधिक (अर्थात् अनेक) होती है । ग्यारह गणघरों में से कुछ तो भगवान् को उपस्थिति में हो मुक्ति प्राप्त कर चुके थे। सुधर्मास्वामी नामक गणधर सब गणघरों में दीर्घायु थे। अतः भगवान् के समस्त प्रवचन का उत्तराधिकार उन्हें मिला था। उन्होंने उसे सुरक्षित रखा एवं अपनी शैली व शब्दों में ग्रथित कर आगे की शिष्य-प्रशिष्यपरम्परा को सौंपा। इस शिष्य-प्रशिष्यपरम्परा ने भी सुधर्मास्वामो को ओर से प्राप्त वसीयत को अपनी शैली व शब्दों में बहुत लम्बे काल तक कण्ठस्थ रखा । आचार्य भद्रबाहु के समय में एक भयङ्कर व लम्बा दुष्काल पड़ा । इस समय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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