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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
जे खलु विसए सेवई सेवित्ता णालोएइ, परेण वा पुट्ठो निण्हवइ, अहवा तं परं सएण वा दोसेण पाविट्टयरेण वा दोसेण उवलिंपिज्जत्ति । आचार्य शीलांक ने अपनी वृत्ति में जो पाठ स्वीकार किया है उसमें और नागार्जुनीय पाठ में शब्द रचना की दृष्टि से बहुत अन्तर है, यद्यपि आशय में भिन्नता नहीं है । नागार्जुनीय पाठ स्वीकृत पाठ की अपेक्षा अति स्पष्ट एवं विशद । उदाहरण के लिए एक और पाठ लें :
विरागं रूवेसु गच्छेज्जा महया - खुड्दएहि (एस) वा । - आचारांग अ. ३, उ. ३, ११७.
इस पाठ के बजाय नागार्जुनीय पाठ इस प्रकार है :-- त्रिसम्म पंचगम्मि वि दुविहम्मि तियं तियं । भावओ सुट्ट जाणित्ता स न लिप्पइ दोसु वि ॥
नागार्जुनीय पाठान्तरों के अतिरिक्त वृत्तिकार ने और भी अनेकों पाठभेद दिये हैं, जैसे ‘मोयणाए' के स्थान पर 'भोयणाए', 'चित्ते' के स्थान पर 'चिट्टे', 'पियाडया' के स्थान पर 'पियायया' इत्यादि । संभव है, इस प्रकार के पाठभेद मुखाग्रश्रुत की परम्परा के कारण अथवा प्रतिलिपिकार के लिपिदोष के कारण हुए हों । इन पाठ भेदों में विशेष अर्थभेद नहीं है । हां कभी-कभी इनके अर्थ में अन्तर अवश्य दिखाई देता है । उदाहरण के लिए 'जातिमरणमोयणाए' का अर्थ है जन्म और मृत्यु से मुक्ति प्राप्त करने के लिए, जब कि 'जातिमरणभोयणा' का अर्थ है जातिभोज अथवा मृत्युभोज के उद्देश्य से । यहां जातिभोज का अर्थ है जन्म के प्रसंग पर किया जाने वाला भोजन का समारंभ अथवा जाति - विशेष के निमित्त होने वाला भोजन समारंभ एवं मृत्युभोज का अर्थ है श्राद्ध अथवा मृत भोजन |
आचारांग के कर्ता :
आचारांग के कर्तृत्व के सम्बन्ध में इसका उपोद्घातात्मक प्रथम वाक्य कुछ प्रकाश डालता है । वह वाक्य इस प्रकार है : सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं - हे चिरञ्जीव ! मैंने सुना है कि उन भगवान् ने ऐसा कहा है । इस वाक्य रचना से यह स्पष्ट है कि कोई तृतीय पुरुष कह रहा है कि मैंने ऐसा सुना है कि भगवान् ने यों कहा है । इसका अर्थ यह है कि मूल वक्ता भगवान् है । जिसने सुना है वह भगवान् का साक्षात् श्रोता है । और उसी श्रोता से सुनकर जो इस समय सुना रहा है, वह श्रोता का श्रोता है । यह परम्परा वैसी ही है जैसे कोई एक महाशय प्रवचन करते हों, दूसरे महाशय उस प्रवचन को सुनते
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