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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
कथा मिलती है । यद्यपि नियुक्तिकार ने यह स्पष्ट बताया है कि आचाराग्र की पाँच चूलिकाएँ स्थविरकृत हैं फिर भी आचार्य हेमचन्द्र ने तृतीय व चतुर्थ चूलिका के सम्बन्ध में एक ऐसी कथा दी है जिसमें इनका सम्बन्ध महाविदेह क्षेत्र में विराजित सीमंधर तीर्थङ्कर के साथ जोड़ा गया है । यह कथा परिशिष्ट पर्व के नवम सर्ग में है । इसका सम्बन्ध स्थूलभद्र के भाई श्रियक की कथा से है । श्रियक की बड़ी बहन साध्वी यक्षा के कहने से श्रियक ने उपवास किया और वह मर गया । श्रियक की मृत्यु का कारण यक्षा अपने को मानती रही। किन्तु वह श्रीसंघ द्वारा निर्दोष घोषित की गई एवं उसे श्रियक की हत्या का कोई प्रायश्चित्त नहीं दिया गया । यक्षा श्रीसंघ के इस निर्णय से सन्तुष्ट न हुई । उसने घोषणा की कि जिन भगवान् खुद यदि यह निर्णय दें कि मैं निर्दोष हूँ तभी मुझे सन्तोष हो सकता है । तब समस्त श्रीसंघ ने शासनदेवी का आह्वान करने के लिए काउसग - कायोत्सर्ग - ध्यान किया । ऐसा करने पर तुरन्त शासनदेवी उपस्थित हुई एवं साध्वी यक्षा को अपने साथ महाविदेह क्षेत्र में विराजित सीमंधर भगवान् के पास ले गई । सीमंधर भगवान् ने उसे निर्दोष घोषित किया एवं प्रसन्न होकर श्रीसंघ के लिए निम्नोक्त चार अध्ययनों का उपहार दिया : भावना, विमुक्ति, रतिकल्प और विचित्रचर्या । श्रीसंघ ने यक्षा के मुख से सुन कर प्रथम दो अध्ययनों को आचारांग की चूलिका के रूप में एवं अन्तिम दो अध्ययनों को दशवैकालिक की चूलिका के रूप में जोड़ दिया ।
हेमचन्द्रसूरिलिखित इस कथा के प्रामाण्य- अप्रामाण्य के विषय में चर्चा करने की कोई आवश्यकता नहीं । उन्होंने यह घटना कहाँ से प्राप्त की, यह अवश्य शोधनीय है । दशवैकालिक नियुक्ति, आचारांग नियुक्ति, हरिभद्रकृत दशवैकालिक वृत्ति, शीलांककृत आचारांग-वृत्ति आदि में इस घटना का कोई उल्लेख नहीं है । पद्यात्मक अंश :
आचारांग - प्रथमश्रुतस्कन्ध के विमोह नामक अष्टम अध्ययन का सम्पूर्ण आठवाँ उद्देशक पद्यमय है । उपधानश्रुत नामक सम्पूर्ण नवम अध्ययन भी पद्यमय है । यह बिलकुल स्पष्ट । इसके अतिरिक्त द्वितीय अध्ययन लोकविजय, तृतीय अध्ययन शीतोष्णीय एवं षष्ठ अध्ययन धूत में कुछ पद्य बिलकुल स्पष्ट हैं । इन पद्यों के अतिरिक्त आचारांग में ऐसे अनेक पद्य और हैं जो मुद्रित प्रतियों में गद्य के रूप में छपे हुए हैं । चूर्णिकार कहीं-कहीं 'गाहा' ( गाथा ) शब्द द्वारा मूल के पद्यभाग का निर्देश करते हैं किन्तु वृत्तिकार ने तो शायद ही ऐसा कहीं किया हो । आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के सम्पादक श्री शुब्रिंग ने अपने संस्करण में समस्त पद्यों का स्पष्ट पृथक्करण किया है एवं उनके छंदों पर भी जर्मन भाषा में पर्याप्त प्रकाश
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