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________________ अंग ग्रन्थों का अंतरंग परिचय: आचारांग १२१ - उन पर करना चाहिए। दूसरे उद्देशक में बताया है कि आहार, पानी, वस्त्र आदि दूषित हों तो उनका त्याग करना चाहिए – उनसे अलग रहना चाहिएमोह नहीं रखना चाहिए। तृतीय उद्देशक में बताया है कि साधु के शरीर का कंपन देख कर यदि कोई गृहस्थ शंका करे कि यह साधु कामावेश के कारण काँपता है तो उसकी शंका को दूर करना चाहिए - उसे शंका से मुक्त करना -- चाहिए - उसका शंकारूप जो मोह है उसे दूर करना चाहिए । आगे के उद्देशकों में उपकरण एवं शरीर के विमोक्ष अथवा विमोह के सम्बन्ध में प्रकाश डाला गया है जिसका सार यह है कि यदि ऐसी शारीरिक परिस्थिति उत्पन्न हो जाय कि संयम की रक्षा न हो सके अथवा स्त्री आदि के अनुकूल अथवा प्रतिकूल उपसर्ग होने पर संयम भंग की स्थिति पैदा हो जाय तो विवेकपूर्वक जीवन का मोह छोड़ देना चाहिए अर्थात् शरीर आदि से आत्मा का विमोक्ष करना चाहिए । नवें अध्ययन का नाम उवहाणसुय - उपधानश्रुत है । इसमें भगवान् महावीर की गंभीर ध्यानमय व घोरतपोमय साधना का वर्णन है । उपधान शब्द तप के पर्याय के रूप में जैन प्रवचन में प्रसिद्ध है । इसीलिए इसका नाम उपधानश्रुत रखा गया मालूम होता है । नियुक्तिकार ने इस अध्ययन के नाम के लिए 'उवहाणसुय' शब्द का प्रयोग किया है। इसके चार उद्देशक हैं । प्रथम उद्देशक में दीक्षा लेने के बाद भगवान् को जो कुछ सहन करना पड़ा उसका वर्णन है । उन्होंने सर्वप्रकार की हिंसा का त्याग कर अहिंसामय चर्या स्वीकार की । वे हेमंत ऋतु में अर्थात् कड़कड़ाती ठंडी में घरबार छोड़ कर निकल पड़े एवं कठोर प्रतिज्ञा की कि 'इस वस्त्र से शरीर को ढकूंगा नहीं' इत्यादि । द्वितीय एवं तृतीय उद्देशक में भगवान् ने कैसे-कैसे स्थानों में निवास किया एवं वहाँ उन्हें कैसे-कैसे परीषह सहन करने पडे, यह बताया गया है । चतुर्थ उद्देशक में बताया है कि भगवान् ने किस प्रकार तपश्चर्या की, भिक्षाचर्या में क्या-क्या व कैसा कैसा शुष्क भोजन लिया, कितने समय तक पानी पिया व न पिया, इत्यादि । पहले 'आचार' के जो पर्यायवाची शब्द बताये हैं उनमें एक 'आइण्ण' शब्द भी हैं । आइण्ण का अर्थ है आखोर्ण अर्थात् आचरित । आचारांग में जिस प्रकार की चर्या का वर्णन किया गया है, वैसी ही चर्या का जिसने आचरण किया है उसका इस अध्ययन में वर्णन है । इसी को दृष्टि में रखते हुए सम्पूर्ण आचारांग का एक नाम 'आइण्ण' भी रखा गया है । आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के नौ अध्ययनों के सब मिलाकर ५१ उद्देशक हैं । इनमें से सातवें अध्ययन महापरिज्ञा के सातों उद्देशकों का लोप हो जाने कारण वर्तमान में ४४ उद्देशक ही उपलब्ध हैं । नियुक्तिकार ने इन सब उद्देशकों का विषयानुक्रम बताया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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