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________________ १२० जैन साहित्य का बृहद् इतिहास चलता है कि नियुक्तिकार के सामने यह अध्ययन अवश्य रहा होगा । नियुक्तिकार ने 'महापरिन्ना' के 'महा' एवं 'परिन्ना' इन दो पदों का निरूपण करने के साथ ही परिन्ना के प्रकारों का भी निरूपण किया है एवं अन्तिम गाथा में बताया है कि साधक को देवांगना, नरांगना, व तिर्यञ्चांगना इन तीनों का मन, वचन व काया से त्याग करना चाहिए । इस परित्याग का नाम महापरिज्ञा है । इस अध्ययन का विषय नियुक्तिकार के शब्दों में 'मोहसमुत्था परिसहुवसग्गा' अर्थात् मोहजन्य परीषह अथवा उपसर्ग हैं । इसकी व्याख्या करते हुए वृत्तिकार शीलांकदेव कहते हैं कि संयमी श्रमण को साधना में विघ्नरूप से उत्पन्न मोहजन्य परीषहों अथवा उपसर्गों को समभावपूर्वक सहन करना चाहिए । स्त्री - संसर्ग भी एक मोहजन्य परीषह ही है । भगवान् महावीरकृत आचारविधानों में ब्रह्मचर्य अर्थात् त्रिविध स्त्री-संसर्गत्याग प्रधान है । परम्परा से चले आने वाले चार यामों-चार महाव्रतों में भगवान् महावीर ने ब्रह्मचर्य व्रत को अलग से जोड़ा । इससे पता चलता है कि भगवान् महावीर के समय में एतद्विषयक कितनी शिथिलता रही होगी । इस प्रकार के उग्रशैथिल्य एवं आचारपतन के युग में कोई विघ्नसंतोषी कदाचित् इस अध्ययन के लोप में निमित्त बना हो तो कोई आश्चर्य नहीं । १ आठवें अध्ययन के दो नाम मालूम पड़ते हैं : एक विमोक्ख अथवा विमोक्ष और दूसरा विमोह | अध्ययन के मध्य में 'इच्चेयं विमोहाययणं' तथा 'अणुपुवेण विमोहाई' व अध्ययन के अन्त में 'विमोहन्नयरं हियं' इन वाक्यों में स्पष्ट रूप से 'विमोह' शब्द का उल्लेख है । यही शब्दप्रयोग अध्ययन के नामकरण में निमित्तभूत मालूम होता है । नियुक्तिकार ने नाम के रूप में 'विमोवख - विमोक्ष' शब्द का उल्लेख किया है । वृत्तिकार शीलांकसूरि मूल व नियुक्ति दोनों का अनुसरण करते हैं । अर्थ की दृष्टि से विमोह व विमोक्ख में कोई तात्त्विक भेद नहीं है । प्रस्तुत अध्ययन के आठ उद्देशक हैं । उद्देशकों की संख्या की दृष्टि से यह अध्ययन शेष आठों अध्ययनों से बड़ा है । नियुक्तिकार का कथन है कि इन आठों उद्दे शकों में विमोक्ष विषयक निरूपण है । विमोक्ष का अर्थ है अलग हो जाना - साथ में न रहना । विमोह का अर्थ है मोह न रखना - संसर्ग न करना । प्रथम उद्देशक में बताया है कि जिन अनगारों का आचार अपने आचार से मिलता न दिखाई दे उनके संसर्ग से मुक्त रहना चाहिए उनके साथ नहीं रहना चाहिए अथवा वैसे अनगारों से मोह नहीं रखना चाहिए— उनका संग नहीं १. सप्तमे त्वयम् - संयमादिगुणयुक्तस्य कदाचिद् मोहसमुत्थाः परीषहा उपसर्गा वा प्रादुर्भवेयुः ते सम्यक् सोढव्याः - पृ० ९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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