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________________ ११८ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास आरंभ-समारंभ की चर्चा है। इन प्रकरणों में शस्त्र शब्द का अनेक बार प्रयोग किया गया है एवं लौकिक शस्त्र की अपेक्षा सर्वथा भिन्न प्रकार के शस्त्र के अभिधेय का स्पष्ट परिज्ञान कराया गया है। अतः शब्दार्थ की दृष्टि से भी इस अध्ययन का शस्त्रपरिज्ञा नाम सार्थक है । द्वितीय अध्ययन का नाम लोकविजय है। इसमें कुल छः उद्देशक हैं। कुछ स्थानों पर 'गढिए लोए, लोए पव्वहिए, लोगविपस्सी, विइत्ता लोग, वंता लोगसन्नं, लोगस्स कम्मसमारंभा' इस प्रकार के वाक्यों में 'लोक' शब्द का प्रयोग तो मिलता है किन्तु सारे अध्ययन में कहीं भी 'विजय' शब्द का प्रयोग नहीं दिखाई देता। फिर भी समग्र अध्ययन में लोकविजय का ही उपदेश है, ऐसा कहा जा सकता है। यहां विजय का अर्थ लोकप्रसिद्ध जीत ही है । लोक पर विजय प्राप्त करना अर्थात् संसार के मूल कारणरूप क्रोध, मान, माया व लोभ-इन चार कषायों को जीतना। यही इस अध्ययन का सार है । नियुक्तिकार ने इस अध्ययन के छहों उद्देशकों का जो विषयानुक्रम बताया है वह उसी रूप में उपलब्ध है । वृत्तिकार ने भी उसी का अनुसरण किया है। इस अध्ययन का मुख्य उद्देश्य वैराग्य बढ़ाना, संयम में दृढ़ करना, जातिगत अभिमान को दूर करना, भोगों की आसक्ति से दूर रखना, भोजनादि के निमित्त होने वाले आरंभसमारंभ का त्याग करवाना, ममता छुड़वाना आदि है । तृतीय अध्ययन का नाम सीओसणिज्ज-शीतोष्णीय है । इसके चार उद्देशक हैं। शोत अर्थात् शीतलता अथवा सुख एवं उष्ण अर्थात् परिताप अथवा दुःख । प्रस्तुत अध्ययन में इन दोनों के त्याग का उपदेश है । अध्ययन के प्रारम्भ में ही 'सीओसिणच्चाई' (शीतोष्णत्यागी) ऐसा शब्द-प्रयोग भी उपलब्ध है । इस प्रकार अध्ययन का शीतोष्णीय नाम सार्थक है। नियुक्तिकार ने चारों उद्देशकों का विषयानुक्रम इस प्रकार बताया है : प्रथम उद्देशक में असंयमी को सुप्तसोते हुए को कोटि में गिना गया है। दूसरे उद्देशक में बताया है कि इस प्रकार के सुप्त व्यक्ति महान् दुःख का अनुभव करते हैं। तृतीय उद्देशक में कहा गया है कि श्रमण के लिए केवल दुःख सहन करना अर्थात् देहदमन करना ही पर्याप्त नहीं है। उसे चित्तशुद्धि की भी वृद्धि करते रहना चाहिए । चतुर्थ अध्ययन में कषाय-त्याग, पापकर्म-त्याग एवं संयमोत्कर्ष का निरूपण है । यही विषयक्रम वर्तमान में भी उपलब्ध है। ___ चतुर्थ अध्ययन का नाम सम्मत्त--सम्यक्त्व है। इसके चार उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में अहिंसाधर्म की स्थापना व सम्यक्त्ववाद का निरूपण है । द्वितीय उद्देशक में हिंसा की स्थापना करने वाले अन्य यूथिकों को अनार्य कहा गया है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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