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________________ ११६ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास एवं दूसरे को अपकृष्ट समझे, यह ठीक नहीं। यह बात आचारान के मूल में ही कही गई है । वृत्तिकार ने भी अपने शब्दों में इसी आशय को अधिक स्पष्ट किया है। उन्होंने तत्सम्बन्धी एक प्राचीन गाथा भी उद्धृत की है जो इस प्रकार है : जो वि दुवत्थतिवत्थो बहुवत्थ अचेलओ व संथरइ । नहु ते हीलंति परं सव्वे वि अ ते जिणाणाए । -द्वितीय श्रुतस्कन्ध, सू० २८६, पृ० ३२७ पर वृत्ति. कोई चाहे द्विवस्त्रधारी हो, त्रिवस्त्रधारी हो, बहुवस्त्रधारी हो अथवा निर्वस्त्र हो किन्तु उन्हें एक-दूसरे की अवहेलना नहीं करनी चाहिए। निर्वस्त्र ऐसा न समझे कि मैं उत्कृष्ट हैं और ये द्विवस्त्रधारी आदि अपकृष्ट हैं। इसी प्रकार द्विवस्त्रधारी आदि ऐसा न समझें कि हम उत्कृष्ट हैं और यह त्रिवस्त्रधारी या निर्वस्त्र श्रमण अपकृष्ट हैं . उन्हें एक-दूसरे का अपमान नहीं करना चाहिए क्योंकि ये सभी जिन भगवान् की आज्ञा का अनुसरण करने वाले हैं। इससे स्पष्ट है कि निर्वस्त्र व वस्त्रधारी दोनों के प्रति मूल सूत्रकार से लगा कर वृत्तिकारपर्यन्त समस्त आचार्यों ने अपना समभाव व्यक्त किया है। उत्तराध्ययन में आने वाले केशी-गौतमोय नामक २३ वें अध्ययन के संवाद में भी इसी तथ्य का प्रतिपादन किया गया है । आचार के पर्याय : जहाँ-जहाँ द्वादशांग अर्थात् बारह अंगग्रंथों के नाम बताये गये हैं, सर्वत्र प्रथम नाम आचारांग का आता है। आचार के पर्यायवाचो नाम नियुक्तिकार ने इस प्रकार बताये हैं : आयार, आचाल, आगाल, आगर, आसास, आयरिस, अंग, आइण्ण, आजाति एवं आमोक्ष । इन दस नामों में आदि के दो नाम भिन्न नहीं अपितु एक ही शब्द के दो रूपान्तर हैं । 'आचाल' के 'च' का लोप नहीं हुआ है जबकि 'आयार' में 'च' लुप्त है। इसके अतिरिक्त आचाल' में मागधी भाषा के नियम के अनुसार 'र' का 'ल' हुआ है । 'आगाल' शब्द भी 'आयार' से भिन्न मालूम नहीं पड़ता। 'य' तथा 'ग' का प्राचीन लिपि की अपेक्षा से मिश्रण होना संभव है तथा वर्तमान हस्तप्रतियों में प्रयुक्त प्राचीन देवनागरी लिपि को अपेक्षा से भी इनका मिश्रण असम्भव नहीं है। ऐसी स्थिति में 'आयार' के बजाय 'आगाल' का वाचन संभव है। इसी प्रकार 'आगाल' एवं 'आगर' भी भिन्न मालूम नहीं पड़ते । 'आगार' शब्द के 'गा' के 'आ' का ह्रस्व होने पर 'आगर' एवं 'आगार' के 'र' का 'ल' होने पर 'आगाल' होना सहज है । 'आइण्ण' ( आचीर्ण ) नाम में 'चर' धातु के भूतकृदंत का प्रयोग हुआ है। इसे देखते हुए 'आयार' के अन्तर्गत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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