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________________ अंग ग्रन्थों का अंतरंग परिचय : आचारांग संगति थी। आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में अचेलक अर्थात् वस्त्ररहित भिक्षु के विषय में तो उल्लेख आता है किन्तु करपात्री अर्थात् पाणिपात्री भिक्षु के सम्बन्ध में कोई स्पष्ट उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता। वीरनिर्वाण के हजार वर्ष बाद संकलित कल्पसूत्र के सामाचारी-प्रकरण की २५३, २५४ एवं २५५ वीं कंडिका में 'पाणिपडिग्गहियस्स भिक्खस्स' इन शब्दों में पाणिपात्री अथवा करपात्री भिक्षु का स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध होता है व आगे की कंडिका में 'पडिग्गहधारिस्स भिक्खुस्स' इन शब्दों में पात्रधारी भिक्षु का भी उल्लेख है। इस प्रकार सचेलक परम्परा के आगम में अचेलक व सचेलक की भाँति करपात्री एवं पात्रधारी भिक्ष ओं का भी स्पष्ट उल्लेख है। आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में वस्त्रधारी भिक्ष ओं के विषय में विशेष विवेचन आता है । इसमें सर्वथा अचेलक भिक्षु के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से कोई उल्लेख नहीं मिलता। वैसे मूल में तो भिक्षु एवं भिक्षु णी जैसे सामान्य शब्दों का ही प्रयोग हुआ है। किन्तु जहां-जहां भिक्षु को ऐसे वस्त्र लेने चाहिए, ऐसे वस्त्र नहीं लेने चाहिए, ऐसे पात्र लेने चाहिए, ऐसे पात्र नहीं लेने चाहिएइत्यादि चर्या का विधान है वहाँ सचेलक अथवा पाणिपात्र भिक्ष की चर्या के विषय में कोई स्पष्ट निर्देश नहीं है। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि द्वितीय श्रुतस्कन्ध का झुकाव सचेलक प्रथा की ओर है । सम्भवतः इसीलिए स्वयं नियुक्तिकार ने इसकी रचना का दायित्व स्थविरों पर डाला है। सुधर्मास्वामी का झुकाव दोनों परम्पराओं की सापेक्ष संगति की ओर मालूम पड़ता है । इस झुकाव का प्रतिबिम्ब प्रथम श्रुतस्कन्ध में दिखाई देता है। दूसरा अनुमान यह भी हो सकता है कि नग्नता तथा सचेलकता ( जीर्णवस्त्रधारित्व अथवा अल्पवस्त्रधारित्व ) दोनों प्रथाओं की मान्यता होने के कारण जो समुदाय अपनी शारीरिक, मानसिक अथवा सामाजिक परिस्थितियों एवं मर्यादाओं के कारण सचेलकता की ओर झुकने लगा हो उसका प्रतिनिधित्व दूसरे श्रुतस्कन्ध में किया गया हो। जिस युग का यह द्वितीय श्रुतस्कन्ध है उस युग में भी अचेलकता समादरणीय मानो जाती थी एवं सचेलकता की ओर झुका हुआ समुदाय भी अचेलकता को एक विशिष्ट तपश्चर्या के रूप में देखता था एवं अपनी अमुक मर्यादाओं के कारण वह स्वयं उस ओर नहीं जा सकता था। एतद्विषयक अनेक प्रमाण अङ्गशास्त्रों में आज भी उपलब्ध हैं । अंगसाहित्य में अचेलकता एवं सचेलकता दोनों प्रथाओं का सापेक्ष समर्थन मिलता है। अचेलक अर्थात् यथाजात एवं सचेलक अर्थात् अल्पवस्त्रधारी-इन दोनों प्रकार के साधक श्रमणों में अमुक प्रकार का श्रमण अपने को अधिक उत्कृष्ट समझे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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