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________________ ११४ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास वा रुक्खमूलंसि वा...' इस वाक्य में जो भिक्षुचर्या संक्षेप में बताई गई है उसे दृष्टि में रखते हुए द्वितीय श्रु तस्कन्ध में एकादश पिण्डषणाओं का विस्तार से विचार किया गया है । इसी प्रकार द्वितीय अध्ययन के पंचम उद्देशक में निर्दिष्ट 'वत्थं पडिग्गह कंबलं पायपूछणं ओग्गहं च कडासणं' को मूलभूत मानते हुए वस्त्रषणा, पात्रषणा, अवग्रहप्रतिमा, शय्या आदि का आचारान में विवेचन किया गया है। पाँचवें अध्ययन के चतुर्थ उद्देशक के 'गामाणुगाम दुइज्जमाणस्स' इस वाक्य में आचारचूलिका के सम्पूर्ण ईर्या अध्ययन का मूल विद्यमान है । धूत नामक छठे अध्ययन के पांचवें उद्देशक के 'आइक्खे विभए किट्टे वेयवी' इस वाक्य में द्वितीय श्रु तस्कन्ध के 'भाषाजात' अध्ययन का मूल है । इस प्रकार नवब्रह्मचर्यरूप प्रथम श्रु तस्कन्ध आचारचूलिकारूप द्वितीय श्रुतस्कन्ध का आधारस्तम्भ है । प्रथम श्रुतस्कन्ध के उपधानश्रु त नामक नौवें अध्ययन के दो उद्देशकों में भगवान् महावीर की चर्या का ऐतिहासिक दृष्टि से अति महत्त्वपूर्ण वर्णन है । यह वर्णन जैनधर्म की भित्तिरूप आंतरिक एवं बाह्य अपरिग्रह को दृष्टि से भी अत्यन्त महत्त्व का है । वैदिक परम्परा के हिसारूप आलंभन का सर्वथा निषेध करने वाला एवं अहिंसा को ही धर्मरूप बताने वाला शस्त्रपरिज्ञा नामक प्रथम अध्ययन भी कम महत्त्व का नहीं है। इसमें हिसारूप स्नानादि शौचधर्म को चुनौती दी गई है। साथ ही वैदिक व बौद्ध परम्परा के मुनियों की हिसारूप चर्या के विषय में भी स्थान-स्थान पर विवेचन किया गया है एवं 'सर्व प्राणों का हनन करना चाहिए' इस प्रकार का कथन अनार्यों का है तथा 'किसी भी प्राण का हनन नहीं करना चाहिए' इस प्रकार का कथन आर्यों का है, इस मत की पुष्टि की गई है । 'अवरेण पुव्वं न सरंति एगे', 'तहागया उ' इत्यादि उल्लेखों द्वारा तथागत बुद्ध के मत का निर्देश किया गया है । 'यतो वाचो निवर्तन्ते' जैसे उपनिषद्-वाक्यों से मिलते-जुलते 'सव्वे सरा नियट्टति, तक्का जत्थ न विज्जइ' इत्यादि वाक्यों द्वारा आत्मा की अगोचरता बताई गई है। अचेलक-सर्वथा नग्न, एक वस्त्रधारी, द्विवस्त्रधारी, तथा त्रिवस्त्रधारी भिक्षुओं की चर्या से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण उल्लेख प्रथम श्रुतस्कन्ध में उपलब्ध हैं। इन उल्लेखों में सचेलकता और अचेलकता की संगतिरूप सापेक्ष मर्यादा का प्रतिपादन है । प्रथम श्रुतस्कन्ध में आने वाली सभी बातें जैनधर्म के इतिहास की दृष्टि से, जैनमुनियों की चर्या की दृष्टि से एवं समग्र जैनसंघ को अपरिग्रहात्मक व्यवस्था की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं । अचेलकता व सचेलकता : __ भगवान् महावीर की उपस्थिति में अचेलकता-सचेलकता का कोई विशेष विवाद न था। सुधर्मास्वामी के समय में भी अचेलक व सचेलक प्रथाओं की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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