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________________ अंग ग्रन्थों का अंतरंग परिचय : आचारांग ११३ में भी चर्चा है। इसमें उसके निवासस्थान का भी विचार किया गया है । साथ ही अचेलक-यथाजात श्रमण तथा उसकी मनोवृत्ति का भी निरूपण है । इसी प्रकार एकवस्त्रधारी, द्विवस्त्रधारी तथा त्रिवस्त्रधारी भिक्षुओं एवं उनके कर्तव्यों व मनोवृत्तियों पर भी प्रकाश डाला गया है। इस आचार-गोचर की भूमिकारूप आध्यात्मिक योग्यता पर ही प्रारंभिक अध्ययनों में भार दिया गया है । विषय : वर्तमान आचारांग में क्या उपर्युक्त विषयों का निरूपण है ? यदि है तो किस प्रकार ? उपर्युक्त राजवार्तिक आदि ग्रन्थों में आचारांग के जिन विषयों का उल्लेख है वे इतने व्यापक व सामान्य है कि ग्यारह अंगों में से प्रत्येक अंग में किसी न किसी प्रकार उनकी चर्चा आती ही है । इनका सम्बन्ध केवल आचारांग से ही नहीं है। अचेलक परम्परा के राजवातिक आदि ग्रन्थों में आचारांग के श्रुतस्कन्ध, अध्ययन आदि के विषय में कोई उल्लेख नहीं मिलता । उनमें केवल उसकी पदसंख्या के विषय में उल्लेख आता है। सचेलक परम्परा के समवायांग तथा नन्दीसूत्र में बताया गया है कि आचारांग के दो श्रुतस्कन्ध हैं, पचीस अध्ययन हैं । इनमें पदसंख्या के विषय में भी उल्लेख मिलते हैं । आचारांग के दो श्रुतस्कन्धों में से प्रथम श्रुतस्कन्ध का नाम 'ब्रह्मचर्य' है। इसके नौ अध्ययन होने के कारण इसे 'नवब्रह्मचर्य' कहा गया है। द्वितीय श्रु तस्कन्ध प्रथम श्र तस्कन्ध की चूलिकारूप है। इसका दूसरा नाम 'आचारान' भी है । वर्तमान में प्रचलित पद्धति के अनुसार इसे प्रथम श्रु तस्कन्ध का परिशिष्ट भी कह सकते हैं। राजवातिक आदि ग्रन्थों में आचारांग का जो विषय बताया गया है वह द्वितीय श्र तस्कन्ध में अक्षरशः मिल जाता है । इस सम्बन्ध में नियुक्तिकार व वृत्तिकार कहते हैं कि स्थविर पुरुषों ने शिष्यों के हित की दृष्टि से आचारांग के प्रथम श्रु तस्कन्ध के अप्रकट अर्थ को प्रकट कर-विभागशः स्पष्ट कर चूलिकारूप-आचाराग्ररूप द्वितीय श्रु तस्कन्ध की रचना की है। नवब्रह्मचर्य के प्रथम अध्ययन 'शस्त्रपरिज्ञा' में समारंभसमालंभ अथवा आरंभ-आलंभ अर्थात् हिंसा के त्यागरूप संयम के विषय में जो विचार सामान्य तौर पर रखे गये हैं उन्हीं का यथोचित विभाग कर द्वितीय श्रुतस्कन्ध में पंच महाव्रतों एवं उनकी भावनाओं के साथ ही साथ संयम की एकविधता, द्विविधता आदि का व चातुर्याम, पंचयाम, रात्रिभोजनत्याग इत्यादि का परिचय दिया गया है। द्वितीय अध्ययन 'लोकविजय' के पांचवें उद्देशक में आनेवाले 'सव्वामगंधे परिन्नाय निरामगंधे परिव्वए' तथा 'अदिस्समाणे कय-विक्क. एस' इन वाक्यों में एवं आठवें विमोक्ष अथवा विमोह नामक अध्ययन के द्वितीय उद्देशक में आने वाले 'से भिक्खू परक्कमेज्ज वा चिद्रूज्ज वा""सुसाणंसि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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