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________________ १०८ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास जैन मुनियों की आचार-प्रणाली, अन्य मत के तापसों व परिव्राजकों की वेषभूषा, दीक्षा तथा आचार-प्रणाली, अपराधी के लिए दण्ड-व्यवस्था, जेलों के विविध प्रकार, व्यापार व्यवसाय, जैन व अजैन उपासकों की चर्या, मनौती मनाने व पुरी करने की पद्धतियां, दासप्रथा, इन्द्र, रुद्र, स्कन्द, नाग, भूत, यक्ष, शिव, वैश्रमण, हरिणेगमेषी आदि देव, विविध-कलाएँ, नृत्य, अभिनय, लब्धियां, विकुर्वणाशक्ति, स्वर्ग में होने वाली चोरियां आदि, नगर, उद्यान, समवसरण ( धर्मसभा ), देवासुर-संग्राम, वनस्पति आदि विविध जीव, उनका आहार, श्वासोच्छ्वास, आयुष्य, अध्यवसाय आदि अनेक विषयों पर अंगग्रन्थों में पर्याप्त प्रकाश डाला गया है । जैन परम्परा का लक्ष्य : जैन तीर्थंकरों का लक्ष्य निर्वाण है। वीतरागदशा की प्राप्ति उनका अन्तिम एवं प्रधानतम ध्येय है। जैनशास्त्र कथाओं द्वारा, तत्त्वचर्चा द्वारा अथवा स्वर्गनरक, सूर्य-चन्द्र आदि के वर्णन द्वारा इसी का निरूपण करते हैं। जब वेदों की रचना हुई तब वैदिक परम्परा का मुख्य ध्येय स्वर्गप्राप्ति था। इसी ध्येय को लक्ष्य में रखकर वेदों में विविध कर्मकांडों की योजना की गई है। उनमें हिंसाअहिंसा, सत्य-असत्य, मदिरापान-अपान इत्यादि की चर्चा गौण है। धीरे-धीरे चिन्तनप्रवाह ने स्वर्गप्राप्ति के स्थान पर निर्वाण, वीतरागता एवं स्थितप्रज्ञता को प्रतिष्ठित किया। बाह्य कर्मकांड भी इसी ध्येय के अनुकूल बने । ऐसा होते हुए भी इस नवीन परिवर्तन के साथ-साथ प्राचीन परम्परा भी चलती रही । इसी का परिणाम है कि जो ध्येय नहीं है अथवा अन्तिम साध्य नहीं है ऐसे स्वर्ग के वर्णनों को भी बाद के शास्त्रों में स्थान मिला । ऋग्वेद के प्रारंभ में धनप्राप्ति की इच्छा से अग्नि की स्तुति की गई है जबकि आचारांग के प्रथम वाक्य में मैं क्या था ? इत्यादि प्रकार से आत्मरूप व्यक्ति के स्वरूप का चिन्तन है। सूत्रकृतांग के प्रारम्भ में बन्धन व मोक्ष को चर्चा की गई है एवं बताया गया है कि परिग्रह बन्धन है। थोड़े से भी परिग्रह पर ममता रखने वाला दुःख दे दूर नहीं रह सकता। इस प्रकार जैन परम्परा के मूल में आत्मा व अपरिग्रह है । इसमें स्वर्गप्राप्ति का महत्त्व नहीं है। जैनग्रन्थों में बताया गया है कि साधक की साधना में जब कोई दोष रह जाता है तभी उसे स्वर्गरूप संसार में भ्रमण करना पड़ता है। दूसरे शब्दों में स्वर्ग संयम का नहीं अपितु संयमगत दोष का परिणाम है । स्वर्गप्राप्ति को भवभ्रमण का नाम देकर यह सूचित किया है कि जैन परम्परा में स्वर्ग का कोई मूल्य नहीं है । अंगसूत्रों में जितनी भी कथाएँ आई हैं सब में साधकों के निर्वाण को ही प्रमुख स्थान दिया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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