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________________ अंग ग्रन्थों का बाह्य परिचय १०७ कृतांग में स्पष्ट दिया हुआ है । इसके अतिरिक्त मक्खलिपुत्र गोशाल के आजीविक मत का भी स्पष्ट नाम आता है। कहीं पर अन्नउत्थिया-अन्ययूथिका. अर्थात् अन्य गण वाले यों कहते हैं, इस प्रकार कहते हुए परमत का निर्देश किया गया है। आचारांग में तो नहीं किन्तु सूत्रकृतांग आदि में कुछ स्थानों पर भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्यों के लिए अथवा पार्वतीर्थ के अनुयायियों के लिए 'पासावच्चिज्जा' एवं 'पासस्था' शब्दों का भी प्रयोग हुआ है । आजीविक मत के आचार्य गोशालक के छः दिशाचर सहायक थे । इन दिशाचरों के सम्बन्ध में प्राचीन टीकाकारों एवं चूर्णिकारों ने कहा है कि ये पासत्थ अर्थात् पार्श्वनाथ की परम्परा के थे। कुछ स्थानों पर अन्य मत के अनुयायियों के कालादायी आदि नाम भी आये हैं। अन्य मत के लिये सर्वत्र 'मिथ्या' शब्द का प्रयोग किया गया है अर्थात् अन्यतीथिक जो इस प्रकार कहते हैं वह मिथ्या है, यों कहा गया है । आचारांग में हिंसा-अहिंसा की चर्चा के प्रसंग पर 'पावादुया--प्रावादुकाः' शब्द भी अन्य मत के वादियों के लिए प्रयुक्त हुआ है। जहाँ-कहीं भी अन्य मत का निरास किया गया है वहां किसी विशेष प्रकार की तार्किक युक्तियों का प्रयोग नहींवत् है । 'ऐसा कहने वाले मन्द हैं, बाल हैं, आरम्भ-समारंभ तथा विषयों में फंसे हुए हैं। वे दीर्घकाल तक भवभ्रमण करते रहेंगे।' इस प्रकार के आक्षेप ही अधिकतर देखने को मिलते हैं । अर्थ की विशेष स्पष्टता के लिए यत्र-तत्र उदाहरण, उपमाएँ व रूपक भी दिये गये हैं । सूर्यग्रहणादि से सम्बन्धित तत्कालीन मिथ्या धारणाओं का निरसन करने का भी प्रयास किया गया है। ऊँच-नीच की जातिगत कल्पना का भी निरास किया गया है। बौद्ध पिटकों में इस प्रकार की कुश्रद्धाओं के निरसन के लिए जिस विशद चर्चा एवं तर्कपद्धति का उपयोग हुआ है उस कोटि की चर्चा का अंगसूत्रों में अभाव दिखाई देता है । विषय-वैविध्य : अंगग्रन्थों में निम्नोक्त विषयों पर भी प्रकाश डाला गया है : स्वर्ग-नरकादि परलोक, सूर्य चन्द्रादि ज्योतिष्क देव, जम्बूद्वीपादि द्वीप, लवणादि समुद्र, विविध प्रकार के गर्भ व जन्म, परमाणु-कंपन, परमाणु की सांशता आदि । इस प्रकार इन सूत्रों में केवल अध्यात्म एवं उसकी साधना की ही चर्चा नहीं है अपितु तत्सम्बद्ध अन्य अनेक विषयों की भी चर्चा की गई है। इनमें कहीं भी यह नहीं कहा गया है कि अमुक प्रश्न तो अव्याकृत है अर्थात् उसका व्याकरण-स्पष्टीकरण नहीं हो सकता। यहाँ तक कि मुक्तात्मा एवं निर्वाण के विषय में भी विस्तार से चर्चा की गई है। तत्कालीन समाजव्यवस्था, विद्याभ्यास की पद्धति, राज्यसंस्था, राजाओं के वैभव-विलास, मद्यपान, गणिकाओं का राज्यसंस्था में स्थान, विविध प्रकार की सामाजिक प्रणालियाँ, युद्ध, वादविवाद, अलंकारशाला, क्षौरशाला, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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