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________________ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास का एक स्वरूप स्थिर रहा हुआ है, यह नहीं कहा जा सकता। इसीलिए आचार्य हेमचन्द्र ने जैन आगमों की भाषा को आर्ष प्राकृत नाम दिया है। प्रकरणों का विषयनिर्देश : आचारांग के मूल सूत्रों के प्रकरणों का विषयनिर्देश नियुक्तिकार ने किया है, यह उन्हीं की सूझ प्रतीत होती है। स्थानांग, समवायांग एवं विशेषावश्यकभाष्य व हारिभद्रीय आवश्यकवृत्ति आदि में अनेक स्थानों पर इस प्रकार के क्रम का अथवा अध्ययनों के नामों का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। समवायांग एवं नंदी के मूल में तो केवल प्रकरणों की संख्या हो दी गई है। अतः इन सूत्रों के कर्ताओं के सामने नामवार प्रकरणों की परम्परा विद्यमान रहो होगी अथवा नहीं, यह निश्चित नहीं कहा जा सकता। इन नामों का परिचय स्थानांग आदि ग्रन्थों में मिलता है । अतः यह निश्चित है कि अंगग्रन्थों को ग्रन्थबद्ध-पुस्तकारूढ करने वाले अथवा अंगग्रन्थों पर नियुक्ति लिखने वाले को इसका परिचय अवश्य रहा होगा। परम्परा का आधार : आचारांग के प्रारंभ में ही ऐसा वाक्य आता है कि 'उन भगवान् ने इस प्रकार कहा है।' इस वाक्य द्वारा सूत्रकार ने इस बात का निर्देश किया है कि यहां जो कुछ भी कहा जा रहा है वह गुरु-परम्परा के अनुसार है, स्वकल्पित नहीं। इस प्रकार के वाक्य अन्य धर्म परम्पराओं के शास्त्रों में भी मिलते हैं । बौद्ध पिटक ग्रन्थों में प्रत्येक प्रकरण के आदि में ‘एवं मे सुतं । एक समयं भगवा उक्कटायं विहरति सुभगवने सालराजमूले ।''इस प्रकार के वाक्य आते हैं । वैदिक परम्परा में भी इस प्रकार के वाक्य मिलते हैं । ऋग्वेद की ऋचाओं में अनेक स्थानों पर पूर्व परम्परा की सूचना देने के लिए 'अग्निः पूर्वेभिः ऋषिभिः ईडयः नूतनैः उत' यों कह कर परम्परा के लिए 'पूर्वेभिः' अथवा 'नूतनः' इत्यादि पद रखने की प्रथा स्वीकार की गई है। उपनिषदों में कहीं प्रश्नोत्तर की पद्धति है तो कहीं अमुक ऋषि ने अमुक को कहा, इस प्रकार की प्रथा स्वीकृत है । सूत्रकृतांग आदि में आचारांग से भिन्न प्रकार की वाक्यरचना द्वारा पूर्व परम्परा का निर्देश किया गया है। परमतों का उल्लेख : अंगसूत्रों में अनेक स्थानों पर 'एगे पवयमाणा' ऐसा कहते हुए सूत्रकार ने परमतों का भी उल्लेख किया है। परमत का विशेष नाम देने की प्रथा न होते हुए भी उस मत के विवेचन से नाम का पता लग सकता है। बुद्ध का नाम सूत्र१. मज्झिमनिकाय का प्रारम्भ. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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