________________
अंग ग्रन्थों का बाह्य परिचय
१०५ अंगों की शैली व भाषा:
शैली की दृष्टि से प्रथम अंग में गद्यात्मक व पद्यात्मक दोनों प्रकार की शैली है। द्वितीय अंग में भी इसी प्रकार की शैली है। तीसरे से लेकर ग्यारहवें अंग तक गद्यात्मक शैली का ही अवलम्बन लिया गया है। इनमें कहीं एक भी पद्य नहीं है, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता किन्तु प्रधानतः ये सब गद्य में ही है। इनमें भी ज्ञाताधर्मकथा आदि में तो वसुदेवहिंडी अथवा कादम्बरी की गद्यशैली के समकक्ष कही जा सके ऐसी गद्यशैली का उपयोग हुआ है। यह शैली उनके रचना-समय पर प्रकाश डालने में भी समर्थ है। हमारे साहित्य में पद्यशैली अति प्राचीन है तथा काव्यात्मक गद्यशैली इसकी अपेक्षा अर्वाचीन है। गद्य को याद रखना बहुत कठिन होता है इसलिए गद्यात्मक ग्रन्थों में यत्रतत्र संग्रह-गाथाएँ दे दी जाती हैं जिनसे विषय को याद रखने में सहायता मिलती है । जैम ग्रंथों पर भी यही बात लागू होती है ।
___ इस प्रसंग पर यह बताना आवश्यक है कि आचारांग सूत्र में पद्यसंख्या अल्प नहीं है। किन्तु अति प्राचीन समय से चली आने वाली हमारे पूर्वजों की एत. द्विषयक अनभिज्ञता के कारण वर्तमान में आचारांग का अनेक बार मुद्रण होते हुए भी उसमें गद्य-पद्यविभाग का पूर्णतया पृथक्करण नहीं किया जा सका । ऐसा प्रतीत होता है कि वृत्तिकार शीलांक को भी एतद्विषयक पूर्ण परिचय न था। इनसे पूर्व विद्यमान चूर्णिकारों के विषय में भी यही बात कही जा सकती है। वर्तमान महान् संशोधक श्री शुब्रिग ने अति परिश्रमपूर्वक आचारांग के समस्त पद्यों का पृथक्करण कर हम पर महान् उपकार किया है। खेद है कि इस प्रकार का संस्करण अपने समक्ष रहते हुए भी हम नव मुद्रण आदि में उसका पूरा उपयोग नहीं कर सके । आचारांग के पद्य त्रिष्टुभ्, जगती इत्यादि वैदिक पद्यों से मिलते हुए हैं।
__ भाषा की दृष्टि से जैन आगमों की भाषा साधारणतया अर्धमागधी कही जाती है। वैयाकरण इसे आर्ष प्राकृत कहते हैं। जैन परम्परा में शब्द अर्थात् भाषा का विशेष महत्त्व नहीं है। जो कुछ महत्त्व है वह अर्थ अर्थात् भाव का है। इसीलिए जैन शास्त्रों में भाषा पर कभी जोर नहीं दिया गया। जैन शास्त्रों में स्पष्ट बताया गया है कि चित्र-विचित्र भाषाएँ मनुष्य की चित्तशुद्धि व आत्मविकास का निर्माण नहीं करतीं। जीवन की शुद्धि का निर्माण तो सत् विचारों द्वारा ही होता है । भाषा तो विचारों का केवल वाहन अर्थात् माध्यम है । अतः माध्यम के अतिरिक्त भाषा का कोई मूल्य नहीं । परम्परा से चला आने वाला साहित्य भाषा की दृष्टि से परिवर्तित होता आया है। अतः इसमें प्राकृत भाषा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org