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हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास इनकी गुरु परम्परा बताते हुए खरतरगच्छ के प्रसिद्ध आचार्य जिनचन्द्र सूरि से प्रारम्भ करके क्षमासमुद्र > भावकीर्ति > रत्नकुशल > लालचंद के शिष्य नयनचंद को इनका गुरु बताया है। 'मृग प्रोहित चौ०' का विवरण-उद्धरण आगे प्रस्तुत है-मृग प्रोहित चौ० (२३ ढाल, सं० १८७२, मधुमास कृष्ण नवमी, लखनऊ) का आदि
वर्धमान जिनवर चरण, नमुं सदा चितलाय,
श्रुत देवी मन धारकै, गुरु कू सीस नमाय। xxxxx
उत्तराध्ययन नैं जिम कह्यो, चौदम अध्ययन जांण;
मृगु पिरोहित संजम लीयो, तेह कहूं गुण खांण। रचनाकाल- संवत अठारे वहोत्तर जाणो, मधुमास तु बषाणो जी;
कृष्णपक्ष छे अतिसुखदाई, नौमी तिथि वरदाई जी। ढाल कही तेतीसवीं मन लाई, वांचेज्यो मन भाई जी। पंडितजन अने सुध करज्यो, मुझ पर महर धरज्यो जी। xxxxxx
कहइ जयरंग मन वचन काया ये, मिच्छामी दुक्कड़ धासी जी,
आतम निरमल मुझ हिस थासी, पाप तिम सहु जासी जी। यह रचना अगरमल्ल के पुत्र मनुलाल की प्रेरणा से की गई थी। इसकी अंतिम पंक्तियाँ निम्नांकित है
तास प्रेरणा सुं मे कीधी, चोपी रंग रस भीनीजी, श्री जिनधर्म पसायें लहस्यां ऋद्ध समृद्ध में रहस्या जी।१३०
जयसागर
तपागच्छ के न्यायसागर आपके गुरु थे। इन्होंने सं० १८०१ में 'तीर्थमाला' की रचना की। विवरण निम्नवत् है
तीर्थमाला (५५ कड़ी सं० १८०१ आषाढ़ कृष्ण पंचमी, बुधवार, अहमदाबाद। आदि- सरस्वती मात नमी कहूं, मुझ मुख करो निवास,
तीरथ ना गुण गायवा, देयो वचन विलास। न्यायसागर प्रभु मुझ गुरु, गुरु गुण नो भंडार, जय कहे चरणकमल नमी, कर सुं तीरथमल।
गुरु
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