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________________ जयमल्ल ८३ नी ढाल का रचनाकाल डॉ० कासलीवाल ने सं० १८७७ दिया है जो अशुद्ध है क्योंकि जयमल्ल जी का सं० १८५३ में ही स्वर्गवास हो चुका था । रचनाकाल संबंधी पंक्तियाँ इस प्रकार हैं संवत अठारे सै सत्तोत्तरे रे बुद तेरस मास अषाढ़, सिंध प्रदेशी राय नी एक हीय सूत्र थी काढो रे । पुज धना जी प्रसाद थी रे, तत् शिल भूधर दास, तास सीस जेमल कहै रे, छोड़े सलार नायसो रे । इसमें रचनाकाल 'सत्तोत्तरे' का अर्थ ७७ नही बल्कि ०७ होना चाहिये अर्थात् रचनाकाल १८०७ है। यही समय नाहटा जी ने भी लिखा है। डॉ० क० च० कासलीवाल की ग्रंथ सूचियों में पाठ, रचना तिथि आदि कई जगह भ्रामक और अशुद्ध हैं। मृगलोढ़ा ढाल का समय १८१५ दिया गया है परंतु नाहटा ने सं० १८१२ बताया है और दोनों विद्वानों ने रचनाकाल निश्चित करने के लिए कोई अन्तर्साक्ष्य या बाह्यसाक्ष्य नहीं दिया है। १२७ नेमिनाथ के काव्योपयुक्त सरस व्यक्तित्व पर आधारित रचना 'नेमचरित्र' का रचनाकाल उत्तमचंद कोठारी ने अपनी सूची में सं० १८७४ दिया है; यह भी अशुद्ध है क्योंकि कवि ने मरणोपरांत तो रचना नहीं की होगी । १२८ आपके रचनाओं का विपुल परिमाण और उनकी विविधता से आपके गहन अध्ययन और रचना शक्ति का अनुमान किया जा सकता है। आपने न केवल नाना विषयों को अपनी रचनाओं का विषय बनाया अपितु नाना काव्य रूपों में उन्हें अभिव्यक्त किया। इसलिए विषय, व्यंजना, विविधता और तत्वदर्शन आदि अनेक दृष्टियों से विचार करने पर आचार्य जयमल जी १९वीं शताब्दी के महान विद्वान साधक और लेखक सिद्ध होते हैं। इनकी भाषा शैली अन्य जैन लेखकों की तरह रूढ़ मरुगुर्जर ही कही जायेगी, यद्यपि १९वीं शती तक आते-आते प्रादेशिक भाषाओं का पर्याप्त विकास हो चुका था पर कविजन तब भी प्राचीन परिपाटी से पुरानी भाषा शैली में ही लिखते रहे। हिन्दी मे भी भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के बाद ब्रज भाषा के स्थान पर खड़ी बोली हिन्दी का काव्य में प्रयोग करने के लिए एक प्रबल आंदोलन हुआ था और अनेक पुराने खेवे के कवियों ने प्राचीन भाषा शैली का ही पक्ष लिया था। अतः यह स्वाभाविक रीति थी जिस पर अन्य जैन कवियों की तरह १९वीं शती के अग्रगण्य कवि जयमल्ल ने भी विपुल साहित्य का सृजन किया। जयरंग आप नयनचंद्र के शिष्य थे। सं० १८७२ में इन्होंने लखनऊ में 'मृग प्रोहित चौ०' की रचना २३ ढालों में की। इसकी प्रति नाहटा संग्रह में है । १२९ श्री देसाई ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002093
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages326
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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