________________
६६
आदि
रचनाकाल
“सरसति नवपद गुरु नमि, सिद्धचक्र गुणमाल, आसो चैत्रि पुन्यमें, सुणज्यो बाल गोपाल ।
यह कथा गौतम गणधर ने सम्राट श्रेणिक को सुनाई थी ।
श्री पाल मयणां ने ओ फलीओ, ओक माहरे दावो, सहियर भोली टोली मली ने सरस सुकंठे गावो रे। संवत अठार ओगणासीया बरसे, नयर पाटण जग चावो, सांकला भाई नगरसेठ काजे, रास रच्यो मन भावो रे । सागरगच्छ शोभाकर सुंदर, शांतिसागर सूरि रायो, हीरवर्धन शिष्य खेम सुहंकर, नवपद माहे सखायो रे । ८३
अंत
क्षेमविजय
आप तपागच्छ को रूप विजय; माणेकविजय; जीतविजय; विनयविजय के शिष्य थे। आपकी रचना 'प्रतिमा पूजा विचार रास' अथवा कुमति ५८ प्रश्नोत्तर रास सं० १८९२ आसो कृष्ण १३, धनतेरस, मंगलवार को सूरत में लिखी गई थी। आदि की पंक्तियाँ नहीं उपलब्ध है। अंत में गुरुपरंपरा वही दी गई है जो ऊपर लिखा है।
रचनाकाल
हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
"नयन ग्रह वसुचंद्र संवत्सर (१८९२) आश्विन कृष्ण पक्षाया; उत्तरा ने औंद योगे भोमवार तिथी, धनतेरस कहाया रे ।
यह रचना वृजलाल के वंशज जयचन्द्र के आग्रह पर की गई ।
"जो कोई पूजा अ भणसे सुणसे, तस घर मंगल थाया, समकित भवी जीव ने उपगारे, थापना पूजा बनाया रे । ”
यह रचना प्रतिमा स्थापना के अवसर पर सविधि पूजन हेतु की गई है। जैन गुर्जर कवियों के प्रथम संस्करण में इन्हें विनयविजय, दीपविजय का शिष्य बताया गया था परन्तु प्राप्त उदाहरणों के आधार पर स्पष्ट होता है कि विनयविजय के दो शिष्य दीपविजय और क्षेमविजय थे। पुष्पिका में भी क्षेमविजय को विनयविजय का शिष्य बताया गया है अतः ये निश्चय ही विनयविजय के शिष्य थे। संबंधित पंक्तियाँ प्रमाण स्वरूप उद्धृत की जा रही है
" तस शिष्य युगल भविक विकसंता, श्री दीपविजय वृद्ध भाया, वयरागी त्यागी मति गुणवतां खेमविजय गुण गाया रे । ८४
खुशालचंद -
यह ऋषि रायचंद के शिष्य थे। इन्होंने सं० १८७९ में 'सम्यक्त्व कौमुदी चौ० '
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International