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ऋषमदास निगोता - ऋषभविजय ताके सूक्ष्म भावनि की है। अनुवृत्ति कहिये प्रवृत्ति जाते। बहुरि विख्यात है अठारह दोष रहित प्रकृति जाकी ऐसा जो जिनपति कहिये जिनेश्वर देव वाके निर्दोष वचनि करि प्रसिद्धि।"५०
मूलाचार भाषा का उल्लेख क० च० कासलीवाल ने भी किया है और इसे सं० १८८८ की भाषा (हिन्दी) में रचित आचारशास्त्र की रचना बताया है।५१ ऋषभविजय. यह तपागच्छीय विजयानंदसूरि, ऋद्धिविजय, कुंवर विजय, रविविजय,
आणंदविजय, प्रेमविजय, रामविजय के शिष्य थे। आपकी दो रचनाओं का विवरण प्राप्त हुआ है१ खंधकमुनि सम्झाय (३ ढाल सं० १८७७ पौष ६)। आदि- "श्री मुनि सुब्रत जिन नमुं चरण युगल कर जोड़ि,
सावत्थिपुर शोभवू, अरि सबला बल तोड़ि। जितशत्र महिपति तिहां, धारणी नामे नार,
गौरी ईश्वर सून सम, खंधक नामे कुमार। रचनाकाल- संवत् सप्त मुनीश्वर वसु चंद्र (१८७७) वर्षे पोष अ,
मास षष्टि प्रेम रागे ऋषमविजय जग भाख ओ, अंत- ‘बंध परीषह ऋषि ये खम्या गुरु खंधक जेम ओ,
शिव सुख चाहो जो जंतु, तब करशो कोप न अम । यह रचना आनन्दकाव्य महोदधि मौक्तिक ५ परिशिष्ट पर छपी है।
वत्सराज रास (४ उल्लास, ५६ ढाल १५२८ कड़ी सं० १८८२ श्रावण शुक्ल ६ भृगुवार, बारेजा) का आदि
श्री सुहंकर आदि देव, युगल धरम हरनार,
वीमल आमल अगोचरु, अजर अमर निरधार।
यह रचना मुख्यतया पूजा के माहात्म्य पर आधारित है, पूजा का महत्त्व दर्शित करने के लिए उदाहरण स्वरुप वत्सराज की कथा दी गई है यथा
पूजा ऊपर वत्सराज ना, भाखी सु अधिकार,
किण विध से सुख दुख लह्यो, किम कीधा भवपार। अंत में सेनसूरि, तिलकसूरि, विजयाणंद सूरि से लेकर रामविजयसूरि तक की
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