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मागसर शुक्ल पंचमी, गुरुवार, पारण में रचित है। प्रारम्भ में गद्य है, पद्य है।
अंत
हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
तत्पश्चात् यह
“सदा सिद्ध भगवान के चरण नमुं चित लाय, श्रुत देवी पुनि समरीये, पूजता कै पाय ।
" इति सम्यकत्व मूल बारव्रत विवरण ओसी विगक माफक दोषे मिटाय के व्रत पाले सो परम कल्याण माला बरे।"
शत अठारे ऊपर बीते वर्ष छब्बीस, मगसिर शुदि पंचमी गुरु पूरण भई जगीस; सुरसरिता के तट बसें पाडलीपुर शुभथान, जिहांसुदर्शन साधुवर पाया केवल ज्ञान ।
पाटलीपुत्र के साह सोमचंद पुत्र हेमचंद के लिए यह बारव्रत विवरण उद्योतसागर ने लिखा है। इसमें पुण्यसागर और ज्ञानसागर की वंदना की गई। अंत में लिखा है ।
इह विधि जे व्रत धारस्ये, वारसे विषय कसाय, विलसे ज्ञान उद्योत मय आनन्द घन सुखदाय।"
जै० गु० क० प्रथम संस्करण में इस रचना के कर्त्ता का नाम ज्ञानसागर शिष्य, ज्ञानउद्योत और उद्योतसागर आदि कई नाम दिए गये थे। नाम के अलावा रचनाओं के विवरण भी गड़बड़ थे जैसे अष्टप्रकारी पूजा का रचनाकाल सं० १७२३ और १८२३ तथा १८४३ दिया गया था पर नाम उद्योतसागर सर्वत्र मिला; इससे निश्चित है कि ये सभी रचनायें उद्योतसागर की हैं। नवीन संस्करण में इन भ्रमों को सुधार कर जो विवरण दिया गया है उसी के आधार पर यह विवरण दिया गया है।
ऋषभदास निगोता
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पं० जयचंद छाबड़ा के समकालीन विद्वान् निगोता का जन्म सं० १८४० के लगभग जयपुर में हुआ था। इनके पिता का नाम शोभाचंद था। सं० १८८८ में इन्होंने प्राकृत में रचित मूलाचार पर भाषा वचनिका लिखी। इनकी वचनिका पर ढूढारी बोली का अधिक प्रभाव है। रचना शैली टोडरमल और जयचंद से प्रभावित है। एक उदाहरण
'वसुनंदि सिद्धांत कविचक्रवर्ति कवि रची टीका है सो चिरकाल पर्यन्त पृथ्वी विषय तिष्ठहु । कैसी है टीका सर्व अर्थनि की है सिद्धि जाते । बहुरि कैसी है समस्त गुणन की निधि, बहुरि ग्रहण करि है नीति जाने ऐसो जो आचरन कहिये मुनिनि का आचरण
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