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अंत
सिद्धाचल - उदयकमल
"श्री शंखेश्वर पास जी, हरी जरा हरनार,
तस प्रणमुं प्रेमे करी, शिवरमनी उरहार। रचनाकाल- अही मही लोचन दधी (भोजन दधि अहि महि) जेहरे,
संवत् संवच्छर अहरे।
अंत में उपरोक्त गुरुपरम्परा इसमें भी दी गई है।३९ उदयऋषि
- आपकी रचना 'सूक्ष्म छत्रीसी' (६२ कड़ी, सं० १८४१ फाल्गुन, नौरंगाबाद' का प्रारम्भ इन पंक्तियो से हुआ है
"सुखम् छत्रीसी सांगल प्राणी, ओ आगम अधिकार जी, जिनवर भाख्यो सार पदारथ, धारो रिदय विचार जी। "सूक्ष्म छत्रीसी शिष्य ने काजे, कीधी मन हुलास जी, बुध बोधवा भणतां गणता, पामे लील विलास जी। आगम रै अनुसारे कीधी, नौरंगाबाद मजार जी,
कहै उदैरिष सुणजो चतुरां, लेज्यो अर्थविचार जी।"४० उदयकमल
आप रत्नकुशल के शिष्य थे। इन्होंने सं० १८२१, कमालपुर मे 'विजयशेठ विजया शेठानी चौ०' की रचना की।४१
श्री देसाई ने इनकी गुरु परम्परा इस प्रकार बताई है
खरतरगच्छीय जिनचंद सूरि संतानीय क्षमासमुद्र, भावकीर्ति, रत्नकुशल के शिष्य, इन्होंने उक्त रचना का विवरण उदाहरण दिया है। विजय शेठ विजय शेठानी चौ० (११ ढाल, सं० १८२१ ज्येष्ठ शुक्ल १२ सोमवार, कमालपुर) इसकी भाषा मारवाड़ी मिश्रित गुजराती (मरु गुर्जर) है। इसका आदि निम्नवत् हैआदि- "श्री जिनराज नमी करी, ग्यांन विमल दातार;
विधन विदारण सुखकरण, पर दुख काटणहार। इसमें शील का माहात्म्य दर्शाया गया है यथाः
पांच वरत में शीलव्रत, उत्तम हौ हितकार,
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