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________________ ४२ सिद्धाचल सिद्धबेलि आदि रचनाकाल हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास कुमति ने शिक्षा पिण दीधी रे, तब रास नी रचना कीधीरे । राधनपुर ना सहवासी रे, तपगच्छ केरा चोमासी रे, खुस्याल विजय नो सीस रे, कहे उत्तमविजय जगीस रे ।” (१३ ढाल सं० १८८५ कार्तिक शुक्ल १५, पेथापुर ) " पास तणा पदकज नमी, समरी सारद माय, विमलाचल गुण वरणनुं साभंलता सुख थाय । " "गायो गिरि इक्षूवंशी ईश ढालो तरे करी ताजी रे, अठार पच्चासिइं कारतिक मास, रुडी पुन्निमे दिलराजी रे।” इसमें भी अन्य रचनाओं की तरह ऊपर दी गई गुरुपरम्परा का उल्लेख और गुरुजनों का सादरस्मरण किया गया है। नेमिनाथ रस बेलि (सं० १८८९ फाल्गुन शुक्ल सप्तमी ) यह शृंगार रस की रचना है। इसके अंत में कवि ने लिखा है Jain Education International "रस मांहे विरस न वरणीये, ओ वरणन नो विवहार रे, साकर मां खार न नाखिये समझै ते जांण संसार रे । में रास रच्यो रसवेलि नो रसशास्त्र ने नपण निहाली रे, कर्तुं रसमय शास्त्र अ रुयडुं कबहुं, ते घरि नित्य दीवाली रे । अठर नव्यासियै नेडु थी फागुण शुदि सातिमे साची रे, कहे उत्तम विजय खुशाल नो रढीयाला रसमां राचीरे । रुडी रसबेले रसिया रमौ । ” इस बेलि को उत्तमविजय के प्रशिष्य अमृतिविजय रत्नविजय ने १९४२ में छपवाया है। राजिमती स्नेह बेलि (१५ ढाल सं० १८७६ आसो ५, भृगुवार) यह बारहमासा है। इसके ढालों में प्रयुक्त देशी तत्कालीन जैनेतर पदों से लिए गये हैं जैसे "मारो बहालो छे दरियापार, मनहुं मान्य छे। " इस बारहमासे का आदि इस प्रकार हुआ है For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002093
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages326
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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