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अमीविजय
रचनाकाल - पुण्यसार नो रास ओ रचीयो चंद मुनी चंद वसु वर्षे जी, पुण्य मांस नी पंचमी दिवसे, तरणीज वारे मन हरषें जी । अंतिम पंक्तियाँ— अधिकुं ओछु जो कोइ भाख्युं मीच्छा दुक्कड़ तेह जी, ध्रु जीम अचल होज्यो जग माहे, पुण्यसार गुण ओह जी । " १६
हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
तेहनो बालक अमीयसागर, उत्तम नां गुण गाया जी । विबुध न हस जो बाल कीड़ाई, अ अकतीशें ढाल जी, पुण्यसागर नो रास अ गायो चरित्र वचन पर नाले जी।
तपागच्छ के रूपविजय आपके गुरु थे। आपने नेम रासो (सं० १८८९, राजनगर) और 'महावीर नुं पारणुं' नामक रचनायें की। ये दोनों कृतियाँ प्रकाशित हैं। चैत्यआदि संज्झय भाग १ तथा २ और ३ के अतिरिक्त वृहत् काव्य दोहा भाग२ और अन्यत्र से भी ये प्रकाशित हो चुकी है।
रचनाकाल
इनकी रचना नेमराजुल बारमासा (सं० १८८९ राजनगर ) प्राचीन मध्यकालीन वारमासा संग्रह भाग १ में प्रकाशित है। इसकी अंतिम पंक्तियाँ नमूने के तौर पर प्रस्तुत हैं—
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"इण विध प्रीतडी पालस्ये, सरस्यें तेहना काज, मांगलिक माला ने वरे, अमीयविजय कहे आज |
संवत् अणरनव्यासी अ, रही राजनगर चोमास, बारमास राजुल नेम ना, गाया हरख उल्लास। पारेख डुंगर ना कहण की, रच्या मास श्रीकार, सालता सुख उपजे, पामे भव नो पार । १७
अमोलक ऋषि
आपकी गुरु परम्परा का पता नहीं चला। आपने 'भीमसेन चौपाई की रचना सं० १८५६ में दक्षिण देश के आवलबुटी गाँव में की। इसका उदाहरण भी नहीं मिला। १८
अविचल
आपकी एक रचना 'ढुंढक रास' का विवरण प्राप्त हुआ है। यह रचना १८६९ से पूर्व रची गई। इसका प्रारम्भ निम्नवत् है
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