________________
२७६
प्रयत्न किया जा रहा है।
अंत
'कल्यान्तर्वाच्य व्याख्यान' का आदि
अंत
हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
प्रथम कल्पवाचना नो विधि लिखीइ छ । कल्प कहिता आचार कहीई छे ।
गुर्वावली -
इसमें विजयदेवसूरि, विजयप्रभसूरि से लेकर विजयधर्मसूरि तक का क्रमिक उल्लेख है। विजय धर्म सं० १८०९ में पट्टासीन हुये थे अतः रचना उसी समय के आसपास की होगी। इसका आदि इस प्रकार है
इति कल्पवाचना विधि', अ श्री कल्पसूत्रे त्रिणि अधिकार कहिया ते गाथा ।
उत्तराध्ययन टब्बार्थ
आदि
श्री गुरु परंपरा पट्टावली लिखीइ छे !
इसमें प्रकृत की गाथा देकर तत्पश्चात् अर्थ दिया गया है, यथा
अ श्री पंजुसण कल्प गुरुपरंपरा आव्यो थको आज वंचाइ छे । साभलीइ छेइ। ते माहे श्रीमंत सुमनुं हेतु ते कारण थी गुरुपरंपरा कहीस्ये । २
२८
Jain Education International
संयोग कहतां सयाग वाहर मतापिता, परीसाह्यदिसह बातु तेणइ लवणेकर दृव्य भाव विहमकर धर रहित....... वांछा रहित इह लोक विषइ, परलोक विषे निश्रित रहित, वसांलै करै ताछपुं चंदन करै लेप्यं बिउ ऊपरि सरिखु भाव, जम्यै अणजम्यै सरिखो भाव ।
कल्पसूत्र बाला०
आदि
च्यारि महाव्रत रुप, जे धर्म, जेहवो पंच महाव्रत रुप अ उदेस्यो वर्धमानइ, तेहने धर्म पार्श्व महामुनिनो उपदेसउं कहिउ । २९
भगवंत श्री महावीर तित्र ज्ञान हुंती
मति श्रुति अवधि, इम जाणइ । जे चवीसि पणि
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org