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विष्णु
आदि
२७१
इस रचना को शास्त्री काशीराम करसन जी ने प्रकाशित किया है। २२ लाल- अभय चिंतामणि! गर्भ चेतावणी (८५ कड़ी)
इन पंक्तियों से ज्ञात होता है कि इस रचना का नाम 'गर्भ चेतावणी' उचित है। राजस्थानी जैन साहित्य के इतिहास में गर्भ चेतावणी काव्य की परंपरा मिलती है। यह उसी प्रकार का काव्य है। अत: अभय चिंतामणि नाम अशुद्ध लगता है। इसकी अंतिम पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं
आदि
गरभावास की मास में रच्यो रहयो ऊर्ध्व दस मास, हाथ पाव सुक च्यार हैं, द्वार न आवै सांस ।'
कबीर पंथियों जैसी यह कविता संभवत: दादू संप्रदाय के लालदास कवि की 'चिंतावणी' है जिसकी सूचना राजस्थानी साहित्य की रुपरेखा के पृ० १३६ पर दी गई है। वहाँ इसका रचनाकाल सं० १८३४ बताया गया है।
अंत
थोभण (दास) -
लार पडयौ छोड़े नहीं, भरभर रालै बाध;
लाल कहै जम सुंजे ऊगरइ, जिनकै संबल साथ। संभल निकै संग है, ते सुख पावत जीव, जिहां जाई विहाइं सुषी, राखै समरथ पीव ।
जे भवतारण नुं आवसी, जे जमलोक न जाय, सदा सनेही पीव नैं, सहजै रहै समाय । २३
अजयराज
रचना- बारमास अथवा कृष्ण बिरह ना महिना (सं० १८८४ से पूर्व ) कारितक मासे मेहलि चाल्या कंत रे वाला जी;
प्रीतडली तोड़ि आंण्या अंत मारा बाला जी । प्रीऊ जी माहरा ! स्यूं चाल्या परदेस ओ बाला जी; मंदिरीया मां हूं वालेवेस मारा बाला जी । सुख सज्या मां नंदना लाल बाला जी, वीठलवर ! हसी लडावो लाड मारा वाला जी । जन्म जन्मनां चरणे राखो वास रे वाला जी । थोभण ना सांमी पूरो आस मारा वाला जी । " २४
रचना - सामुद्रिक भाषा ग्रंथ (सं० १८९० से पूर्व )
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