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हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
१८४६, कोकशास्त्र सं० १८४९, जाम रावल रो बारमासो सं० १८५४ इत्यादि । बारमासे का प्रारंभ इस प्रकार हुआ है
साल लै बारे मेघ श्रावण अंब धारा ऊछले; बालहीया दादुर मोर बोले खाल चहुंदिस खलहले । रचना की अंतिम पंक्तियाँ निम्नाकिंत हैं
बीजली चमकै वलै बादल अस्तिका दिन अधरें; राजिंद यात्रा जाम रावल साम तिणरित संभरे । '
किसी अज्ञात कवि ने 'अमर सिंह शलोकों' की रचना की है यह ४३ गाथा की रचना सं० १८५७ से पूर्व की है । ९
इस प्रकार हम देखते हैं कि अज्ञात लेखकों में जैन, जैनेतर और चारण परंपरा के मरुगुर्जर (हिन्दी) लेखक हैं। इसमें कोकशास्त्र, वार्त्ता, बारहमासा, शलोको आदि नाना काव्य विधाओं का प्रयोग मिलता है। किसी अज्ञात कवि ने 'जगदेव परमार वार्त्ता' लिखी है पर इसका रचना काल सं० १९९१ से पूर्व बताया गया है जो हमारी समय-सीमा के बाद है इसलिए इसका विवरण छोड़ रहा हूँ। इसी प्रकार 'सदयवच्छ सावलिंगा की वार्त्ता' भी एक अज्ञात लेखक की रचना है पर यह कथा जैन साहित्य की सुपरिचित कथा है इसलिए इसका विवरण प्रस्तुत कर रहा हूँ
आदि
अंत
शिवगति पांय लाग करि, सद्गुरु चरण पसाय; सुखरंजन अनोपम तेहनी, कहीये बात बताय।
इसमें पद्य के साथ गद्य का भी प्रयोग किया गया है। इसकी अंतिम पंक्तियाँ इस प्रकार हैं
राजा सदयवच्छर, सावलिंगा रे घणी प्रीत हुई।
धण्या सुख विलास कीधा, पूर्वलो लेख इण भव भोगव्यो । सदयवच्छ सावलिंगा री वार्ता मन शुद्धे सांभले कहे वाचें तिनें घणों सुख होय होवें । खुस्याली ऊपजे । चतुर विचक्षण होवे । सोग चिंता उद्देग मिटे । घणा मंगलीक होवे। मनवांछित सुख पामे । घणां विलास पामे।
नयणे सनेही जगत में पूर्व पुन्य प्रमाण; कवि चतुराई केलवी, रचीस बात संयाण । १०
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