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हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास अंत- जपें हरदास दूनों कर जोड़ि, कीया अपराध अछिमिकोडि,
महेसर माय करो मन भाई, प्रभुजी राऐं तोरें पाये।४३१ हर्षविजय
तपा० हीरविजय सूरि शाखान्तर्गत शुभविजय> गुणविजय> प्रेमविजय> जिनविजय> प्रतापविजय> मोहनविजय के शिष्य थे। इन्होंने 'सांब प्रद्युम रास' (६४ ढाल, सं० १८२४-वदी २, सोमवार, उमता) का प्रारंभ इस प्रकार किया हैआदि- प्रणमु शांति जिणेसरु, जग गिरुओ जगवास;
जम्म थकी भवभय टलया, नामें ऋद्धि विलास। शव्दाशव्द रुप धारणी, अनुभूति मुख वास,
करि कवियण ने कारणे, आपो वचन विलास।
कवि ने इस रचना में अपनी गुरु परंपरा का सादर उल्लेख किया है। रचनाकाल निम्नांकित है
संवत वेद जे वेदने अर्धे मंगलीक इंदु प्रमाणो जी; ---द्वितीया वदने पामी, चंद्रवार चित चोखे जी। गातां गुण उत्तम ना प्राणी, दालिद्र दुषने सोपे जी। ऊमंटराय नुं ग्राम वड़े दोतरसोमें साथें जी
उमतां नगरी अधिकी जाणे संपूरण भर आथे जी। अंत- जय-जय मंगल अधिकी प्रसरे, भणतां लील विलासो जी,
घरि-घरि ऊछव आणंद पूरे, थाये श्रीधर वासो जी।४३२
जै०गु०क० के प्रथम संस्करण में रचनाकाल सं० १८४२ बताया गया था किन्तु रचनाकाल कवि के स्वलेखानुसार सं० १८२४ ही आता है और विजय धर्म सूरि का समय सं० १८४१ तक ही था, इसलिए दोनों दृष्टियों से रचनाकाल सं० १८२४ ही उचित है। हितधीर
खरतरगच्छीय कुशलभक्त आपके गुरु थे। आपने सं० १८२६ में 'धन्ना चौपाई की रचना सूरतगढ़ में की।४३३ हीरसेवक (हरसेवक)
आपने 'मयणरेहारास' (१८८ कड़ी, सं० १८७८ से पूर्व, कुडली) लिखा, __ उसकी प्रारंभिक पंक्तियाँ प्रस्तुत है-...
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